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कैसे भूलू में, बचपन अपना ।
दिल दरिया और ,समुंदर जैसा।
याद जब भी आये वो पुरानी /
दिल खिल जाता है बस मेरा /
और अतीत में खो जाता हूँ /
कैसे भूलू में, बचपन अपना//
क्या कहूं उस, स्वर्ण काल को।
जहां सब अपने, बनकर रहते थे।
दुख मुझे हो तो, रोते वो सब थे।
मेरी पीड़ा को, वो समझते थे।
इस युग को ही, स्वर्णयुग कह सकते ।।
मेरा रहना, खाना,और पीना।
खुद के माँ बाप को, कुछ था न पता।
ये सब तो, पड़ोसी कर देते थे ।
इतनी आत्मीयता, होती थी उन मे ।।
अब जवानी का, दौर कुछ अलग है ।
शहरों में कहां, आत्मीयता होती हैं।
सारे के सारे, लोग स्वार्थी है यहाँ के ।
सिर्फ मतलब के, लिए ही मिलते है ।।
पत्थरो के शहर, में रहते रहते ।
खुद पत्थर दिल, वो हो गए है।
किस किस को दे, दोष हम इसका।
एक ही जैसे सारे, हो गए है ।।
ये ही अन्तर है, गांव और शहर में।
अपने और पराए में ।
वहां सब अपने होते थे।
यहां कोई किसी का नही।।
यहां के सारे रिश्ते झूठे है।
इसलिए अपना बनकर ।
अपनों को ही ठगते है।
और इंसानियत को, ताक पर रखते है ।/
और अपने बनाकर अपनो को ही लूटते है //
#संजय जैन
परिचय : संजय जैन वर्तमान में मुम्बई में कार्यरत हैं पर रहने वाले बीना (मध्यप्रदेश) के ही हैं। करीब 24 वर्ष से बम्बई में पब्लिक लिमिटेड कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत श्री जैन शौक से लेखन में सक्रिय हैं और इनकी रचनाएं बहुत सारे अखबारों-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहती हैं।ये अपनी लेखनी का जौहर कई मंचों पर भी दिखा चुके हैं। इसी प्रतिभा से कई सामाजिक संस्थाओं द्वारा इन्हें सम्मानित किया जा चुका है। मुम्बई के नवभारत टाईम्स में ब्लॉग भी लिखते हैं। मास्टर ऑफ़ कॉमर्स की शैक्षणिक योग्यता रखने वाले संजय जैन कॊ लेख,कविताएं और गीत आदि लिखने का बहुत शौक है,जबकि लिखने-पढ़ने के ज़रिए सामाजिक गतिविधियों में भी हमेशा सक्रिय रहते हैं।
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