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तुम्हारे ग़म, उलझनें ज़िन्दगी की,
अपनी हंसी में छुपाते हो ।
बिछड़ कर आज भी रहनुमा,
तुम याद बहुत आते हो ।।
सहर की तरह रोशन हो,
क्यों अंधेरों से घबराते हो ।
नम आंखें ख़ुद यह कहती,
तुम याद बहुत आते हो ।।
महक़ हो,मुश्क़ ए गुलाब हो,
फ़िज़ाओं को तुम महकाते हो ।
रोम रोम कहता बदन का,
तुम याद बहुत आते हो ।।
शामें वीरान मेरी, तेरे बग़ैर,
क्यों ज़िन्दगी बियाबान बनाते हो ।
मेरे पंख, मेरी परवाज़ हो ,
तुम याद बहुत आते हो ।।
#डॉ.वासीफ काजी
परिचय : इंदौर में इकबाल कालोनी में निवासरत डॉ. वासीफ पिता स्व.बदरुद्दीन काजी ने हिन्दी में स्नातकोत्तर किया है,साथ ही आपकी हिंदी काव्य एवं कहानी की वर्त्तमान सिनेमा में प्रासंगिकता विषय में शोध कार्य (पी.एच.डी.) पूर्ण किया है | और अँग्रेजी साहित्य में भी एमए कियाहुआ है। आप वर्तमान में कालेज में बतौर व्याख्याता कार्यरत हैं। आप स्वतंत्र लेखन के ज़रिए निरंतर सक्रिय हैं।
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