दो दिन की थका देनेवाली यात्रा के बाद पहियों से जमीन पर उतरना विलक्षण अनुभव था। शरीर में रेल के तीसरे दर्जे की महक समा गई थी। अभी तक कंपन महसूस हो रहा था। गनीमत है स्लीपर में टिकट कन्फर्म हो गई थी। आमने सामने छ: बर्थ थीं। उसकी सबसे ऊपर थी दाहिनी तरफ़। बाईं और सबसे नीचे थी मल्लिका। घुंघराले, घने काले बाल, गहन श्यामल वर्ण, तीखे नैन नक्श और माथे पर चंदन का टीका दे रहा था परिचय उसके तमिल होने का। अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी बोल लेती थी। संप्रेषण की युक्ति है जब भाषा तब हम यह क्यों देखने लगते हैं अमुक की भाषा क्या है? यह उतना ही महत्वपूर्ण है जितना हमारा किसी के आराध्य, धर्म व रहन-सहन की जिज्ञासा का होता है हमारी दृष्टि में। पहला पृथक्करण धर्म से, फिर बोली से और आगे लंबी फेहरिस्त है इंसानियत के वर्गीकरण की। किसी के कह देने से भला हम होमो या सेपियंस कैसे हो सकते हैं ? (होमो सेपियन्स, आधुनिक व विकसित मानव का लैटिन या वैज्ञानिक नाम है)
हम आर्य से न जाने क्या क्या हुए बस न हो सके तो होमो सेपियंस। आदि मानव से शुरू होकर अंतिम मानव की सतत यात्रा में अनगिनत मुकाम आये मगर यात्रा जारी है।
मल्लिका से परिचय मद्रास में समुद्र के किनारे हुआ था। वो वहाँ चोरी छिपे शराब और जिस्म बेचती थी। एक बार पुलिस के हत्थे चढ़ी। सबकुछ वही रहा बस चोरी छिपे शब्द विलोपित हो गया। छिपा था पुलिसियों का हफ्ता और चोरी रह गई थी मल्लिका के उस हफ्ते में संसर्ग में आये पुरुषों की संख्या में। वो जानबूझकर कम करके बताती थी दरोगा को। हफ्ता तो उस संख्या से ही तय होता था। और जो भी है यह बात पुलिस विभाग की नेकी ही है कि विश्वास करता था दरोगा उसकी बताई संख्या पर और तयशुदा अंक से गुना कर हिसाब ले लेता था।
उस दिन मल्लिका रिझाने वाले अंदाज में बुला रही थी, पता नहीं क्या था उसके आमंत्रण में जिसने राघवेंद्र को आकर्षित किया था उसके प्रति। बातचीत में जाहिर हो गया था वो क्या है। बात यहीं समाप्त हो जाना चाहिए थी। राघवेंद्र ने लेकिन इस बात को खत्म नहीं होने दिया था। उसने अपनी मार्केटिंग प्रतिभा से मल्लिका के बारे में काफी कुछ जान लिया था उस रात समन्दर के किनारे चट्टान पर बैठकर। मल्लिका अभ्यस्त नहीं थी पीने की। कभी कभार बीयर पी थी। आज व्हिस्की की तरंग में या किसी होमो सैपियंस के सानिध्य में उसके 19 साल जो बर्फ से जमे थे, पिघल गये थे। राघवेंद्र उससे कल फिर मिलने का वादा कर चला गया था। पूरी कीमत दी थी उसने जो मल्लिका ने बताई थी उसको। अगले कुछ दिन यही चलता रहा। राघवेंद्र की समझ में एक बात नहीं आ रही थी। लोग कहते हैं स्त्री किसी राज को दबा नहीं सकती। मल्लिका से मिलने के बाद उसने भरसक कोशिश की मगर वो जान नहीं सका था मल्लिका की इस दलदल में उतरने की वजह। नशे की तरंग में भी उसने वही बताया था जो होश में बतलाती थी। हद से ज्यादा कुरेदने पर चुप हो जाती थी या मुस्कुराती थी। जब वो मुस्कुराती थी उसकी दंत पंक्ति की झलक अँधेरे में बिजली सी कौंध जाती थी। तब देखा है राघवेंद्र ने उसकी आँखों में उफनती उदासी को। सामने समन्दर की लहरों का आवेग कम लगता था उस समय उसकी आँखों में मचलती लहरों के सामने।
दरोगा घाघ ही नहीं हद दर्जे का नीच भी था। मल्लिका के बारे में उसके पास खबरें पहुँच रही थीं। उसे फिक्र होने लगी थी आमदनी के मुंडेर से फाख्ता के उड़ने की। उसने पुलिसिया अनुभव आजमाया। राघवेंद्र की सारी जानकारी उठवा ली।
शरीफ आदमी का जब पुलिस से सामना होता है, पुलिस वाला जानता है किस तरह काबू करना है उसकी इंद्रियों पर। और इसका आसान तरीका है उस आदमी का मानसिक बलात्कार। चुनिंदा शब्दों में उसकी माँ-बहन का जिक्र करो। यह तो कुछ भी नहीं है, हमारी हद हमको भी नहीं मालूम जैसे जुमले फेको और कुछ देर बाद वो शरीफ कपड़ों में भी नंगा खड़ा अपनी सलामती की हर कीमत देने विवश हो जाता है। यह फर्स्ट डिग्री टॉर्चर है। यह अपराधियों पर प्रयुक्त नहीं है। यह बात हवालदार से दरोगा तक जानता है। शायद उसके ऊपर वाले भी।
राघवेंद्र अपनी और अपनी प्रतिष्ठित कम्पनी की साख बचाने के लिए तैयार हो गया था दरोगा की बात मानने के लिए। उसने पूरे हफ्ते का जुर्माना चुकाकर खुद को बचा लिया था। अभी मल्लिका को बचाना बाकी था।
बड़ी मुश्किल से तैयार हुई थी मल्लिका मद्रास छोड़ने के लिए। दरोगा को किसी बात की भनक न लगे, तीसरे दर्जे में टीसी को पैसे देकर दो बर्थ का जुगाड़ किया था। अब 900 किलोमीटर दूर आने के बाद राघवेंद्र को तसल्ली हुई थी लेकिन मल्लिका देख रही थी हैरानी से। पहली बार निकली थी अपने परिवेश के बाहर। जगह नई, लोग नये, बोली अलग, पहनावा जुदा। राघवेंद्र ने अपने बैग के साथ उसकी पेटी उठाई और चल दिया पुल की तरफ़। मल्लिका उसके पीछे थी। सीढ़ियाँ जिस जगह खत्म हुईं दोनों तरफ़ भीड़ जा रही थी। राघवेंद्र ने पीछे देखा। मल्लिका की आँखों में सवाल साफ़ दिख रहा था। उसने सामान किनारे रखा। मल्लिका की बाँह पकड़ कर एक ओर कर पीछे के यात्रियों को जगह दी। मल्लिका यह भोपाल है। मध्यप्रदेश की राजधानी। अब यहाँ तुमको कोई नहीं जानता मेरे सिवा। आज तक तुमने अपने बारे में कुछ नहीं बताया। मुझे जानने की जरूरत भी नहीं। अगर तुम भूल गई हो अतीत अपना, अच्छा है। मैं चाहूँगा वो कभी याद नहीं आये। ध्यान से देखा था राघवेंद्र ने उसकी आँखों में।
मल्लिका ने कोई जवाब नहीं दिया राघवेंद्र की बात का। उसके चेहरे पर भी कोई उथल पुथल नहीं थी।
वो जानती थी पुल के दोनों तरफ़ रास्ते हैं। क्या पता राघवेंद्र किस तरफ़ जायेगा। पता नहीं किस तरफ़ होमो सेपियंस हैं और किस तरफ दरोगा और बीच वाले लोग। अब उसने अपना बक्सा उठा लिया था।
राघवेंद्र एक तरफ चल पड़ा था। मल्लिका उसी का अनुसरण कर रही थी। शायद पहचान गई थी आदम की जात को।
परिचय –
नाम :. मुकेश दुबे
माता : श्रीमती सुशीला दुबे
पिता : श्री विजय किशोर दुबे
सीहोर(मध्यप्रदेश)
आरंभिक से स्नातक शिक्षा सीहोर में। स्नातकोत्तर हेतु जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के कृषि महाविद्यालय जबलपुर में प्रवेश। वर्ष 1986 से 1995 तक बहु राष्ट्रीय कम्पनी में कृषि उत्पादों का विपणन व बाजार प्रबंधन।
1995 में स्कूल शिक्षा विभाग मध्यप्रदेश में व्याख्याता। वर्ष 2012 में लेखन आरम्भ। 2014 में दो उपन्यासों का प्रकाशन। अभी तक 5 उपन्यास व 4 कथा संग्रह प्रकाशित। मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच भारत वर्ष द्वारा 2016 में लाल बहादुर शास्त्री साहित्य रत्न सम्मान से सम्मानित।
दिल को छूती हुई कहानी,,,आपकीं हर कहानी मैं एक संदेश निहित होता है,,,जो कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत है,,,बधाई