अनिवार्य शिक्षण में शामिल होने से बचेगा हिन्दी का भविष्य

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arpan jain

भारत बहु भाषी और बहु सांस्कृतिक समन्वय वाला राष्ट्र है, जहाँ ‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी’ बदल जाती है। किन्तु विगत 50 साल में भारत की क़रीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं। वर्ष १९६१ की जनगणना के बाद भारत में १६५२ मातृभाषाओँ का पता चला था, इसके बाद ऐसा कोई सर्वज्ञात सर्वमान्य सर्वेक्षण उपलब्ध ही नहीं हुआ कि जिसमें इस बारे में कोइ अधिकृत आंकड़ा रेखांकित किया जा सकें । उस वक़्त माना गया था कि 1652 नामों में से क़रीब 1100 मातृभाषाएं थीं, क्योंकि कई बार लोग ग़लत सूचनाएं दे देते थे।

गैर सरकारी संगठन भाषा ट्रस्ट के संस्थापक और लेखक गणेश डेवी ने गहन शोध के बाद जारी रिपोर्ट में कहा है कि शहरीकरण और प्रवास की भागमभाग में करीब 230 भाषाओं का नामो निशान मिट गया। ‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी’ जैसी पहचान वाला देश भारत सिर्फ इन भाषाओं को ही नहीं खो रहा है, बल्कि इनके साथ जुड़ी अपनी पहचान से भी दूर होता जा रहा है।

शहरीकरण के विस्तार के साथ खानाबदोश आदिवासी समुदाय भी अपनी प्राचीन भाषाएं छोड़ते जा रहे हैं। पिछले चार सालों से देशभर में किए शोध से पता चला कि 230 भाषाएं भुलाई जा चुकी हैं जिनमें ज्यादातर कबायली भाषाएं है, और 870 भाषाएं अभी जिंदा हैं। पांच साल पहले इस सर्वे की शुरुआत की गई थी। उन्होंने बताया कि बची हुई भाषाओं में 480 कबायली भाषाएं हैं। वह कहते हैं कि भाषाओं का इतनी तेजी से खत्म होना चिंताजनक है।

भाषा के लुप्त होने की दो वजहें हैं और भारत में दो प्रकार की भाषाएं लुप्त हुईं हैं। एक तो तटीय इलाक़ों के लोग ‘सी फ़ार्मिंग’ की तकनीक में बदलाव होने से शहरों की तरफ़ चले गए। उनकी भाषाएं ज़्यादा विलुप्त हुईं। दूसरे जो डीनोटिफ़ाइड कैटेगरी है, बंजारा समुदाय के लोग, जिन्हें एक समय अपराधी माना जाता था। वह अब शहरों में जाकर अपनी पहचान छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे 190 समुदाय हैं, जिनकी भाषाएं बड़े पैमाने पर लुप्त हो गईं हैं।

हर भाषा में पर्यावरण से जुड़ा एक ज्ञान जुड़ा होता है। जब एक भाषा चली जाती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान लुप्त हो जाता है। जो एक बहुत बड़ा नुकसान है क्योंकि भाषा ही एक माध्यम है जिससे लोग अपनी सामूहिक स्मृति और ज्ञान को जीवित रखते हैं। दस हज़ार साल पहले लोग खेती की तरफ़ मुड़े उस वक़्त बहुत सी भाषाएं विलुप्त हो गईं। हमारे समय में भी बहुत बड़ा आर्थिक बदलाव देखने में आ रहा है। ऐसे में भाषाओं की दुर्दशा होना स्वाभाविक है। चूँकि भाषा और बोलियों के मामले में हमारा राष्ट्र जिस भयावह दौर से गुजर रहा है वह चिंता जनक ही नहीं अपितु राष्ट्र के सांस्कृतिक पतन के लिए भूमि भी तैयार कर रहा है।

जिसकी लिपि नहीं हैं उसे बोली कहने का रिवाज़ है। ऐसे में अगर देखें तो अंग्रेज़ी की भी लिपि नहीं है वह रोमन इस्तेमाल करती है। किसी भी लिपि का इस्तेमाल दुनिया की किसी भी भाषा के लिए हो सकता है। जो भाषा प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी में नहीं आई, वह तो तकनीकी इतिहास का हिस्सा है न कि भाषा का अंगभूत अंग, इसलिए मैं इन्हें भाषा ही कहूंगा।

सरकारें न तो भाषा को जन्म दे सकती हैं और न ही भाषा का पालन करा सकती हैं। मगर सरकार की नीतियों से कभी-कभी भाषाएं समय से पहले ही मर सकती हैं। इसलिए सरकार के लिए ज़रूरी है कि वह भाषा को ध्यान में रखकर विकास के भविष्य की सूक्ष्म तैयारी करे।

हमारे देश में राष्ट्रीय स्तर की योजनाएं बनती हैं और राज्यों में इसकी ही छवि देखी जाती है। इसी तरह पूरे देश में भाषा के लिए योजना बनाना ज़रूरी है। मैं यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि 1952 के बाद देश में भाषावार प्रांत बने। इसीलिए हम मानते हैं कि हर राज्य उस भाषा का राज्य है, चाहे वह तमिलनाडु हो, कर्नाटक हो या कोई और हमने केवल शेड्यूल में 22 भाषाएं रखी हैं. केवल उन्हें ही सुरक्षा देने के बजाय सभी भाषाओं को बगैर भेदभाव के सुरक्षा देना ज़रूरी है। अगर सरकार ऐसा नहीं करेगी तो बाकी सभी भाषाएं मृत्यु के रास्ते पर चली जाएंगीं।

और वर्तमान में जिस तरह से हिन्दी को विखंडित कर आठवी अनुसूची के माध्यम से नया स्वांग रचा जा रहा इससे तो हिन्दी का भविष्य भी खतरे से खाली नहीं है।

ऐसी स्थिति में  भारत की लगभग ७२ प्रतिशत आबादी की प्रथम भाषा या कहे मातृभाषा हिन्दी को अनिवार्य शिक्षा में शामिल कर उसे बचाया जा सकता है।

हम जानते हैं कि मातृ कुल परिवेश की भाषा बच्चे की प्रथम भाषा होने के साथ -साथ व्यक्तित्व और लोक व्यवहार के संप्रेषण का प्रथम पायदान भी होती हैं । भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण के ताजा रिपोर्ट में कहा भी है कि मातृभाषा में पढाई-लिखाई करने वाले बच्चों के किसी भी चीज़ को मानसिक रूप से ग्रहण करने की क्षमता अन्य भाषा के मुकाबले ४० फीसदी अधिक होती है, जबकि मातृभाषा में पढाई-लिखाई नहीं करने वाली बच्चों का भावनात्मक संतुलन ५० फीसदी ही विकसित हो पाता है यही वजह है कि हमारे समकालीन समाज में असंतुलित मानसिकता के साथ ही साथ लोगो में हिंसक प्रवृत्ति के खतरे भी बढते जा रहे है। देश दुनिया में मातृभाषाओं की स्थिति अत्यंत ही चिंताजनक है, इस वक्त दुनिया में पाँच हजार से ज़्यादा भाषाएँ बोली जाती है, जबकि एक खास भाषाई अनुसंधान के मुताबिक अगले चालीस वर्षों में चार हजार भाषाओं पर उनके ख़त्म होने का खतरा मंडरा रहा है। भारत में तो यह खतरा निरंतर बढ़ता जा रहा है। बीते पचास बरस में भारत की तक़रीबन बीस फीसदी भाषाएँ समाप्त हो चुकी होगी । केंद्र सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रहमणयम की उपस्थिति में जारी की गई ‘असर (एक गैर सरकारी संगठन) की ताजा वार्षिकी रिपोर्ट में कहा गया है कि १४ से 18 वर्ष की उम्र के आठवीं पास पच्चीस प्रतिशत बच्चे अपनी मातृभाषा में लिखी किताब नहीं पढ पाते है।  भारतीय होने की प्रथम शर्त में मातृभाषा में शिक्षा का अनिवार्यकरण होना आवश्यक हैं। इसी की साथ शासकीय कार्यों में अनुवादकों की आवश्यकता को भी शामिल किया जाएँगा, इससे रोज़गार भी बढ़ेगा। वर्तमान में हिन्दी भारत की राजभाषा है, और उसी राजभाषा अधिनियम के आलोक में यदि शासन के फरमान में इस बात को लागू कर दिया जाए कि जिस अभ्यर्थी की शिक्षा में हिन्दी अनिवार्य विषय न हो, वे भारत की किसी भी लोक सेवा परीक्षा में नहीं बैठ पाएंगे तो निश्चित तौर पर हिन्दी भारतीय विद्यालयों में अनिवार्यत: पढ़ाई जाने लगेगी। भारतीय भाषाओँ को लुप्त होने से इसलिए भी बचाना है क्योंकि यही हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी  है और इनसे ही हमारी संस्कृति चिरकाल तक जीवित रह सकती है , अन्यथा ढाक के तीन पात।

#डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’

परिचय : डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ इन्दौर (म.प्र.) से खबर हलचल न्यूज के सम्पादक हैं, और पत्रकार होने के साथ-साथ शायर और स्तंभकार भी हैं। श्री जैन ने आंचलिक पत्रकारों पर ‘मेरे आंचलिक पत्रकार’ एवं साझा काव्य संग्रह ‘मातृभाषा एक युगमंच’ आदि पुस्तक भी लिखी है। अविचल ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में स्त्री की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा है। इन्होंने आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता का आधार आंचलिक पत्रकारिता को ही ज़्यादा लिखा है। यह मध्यप्रदेश के धार जिले की कुक्षी तहसील में पले-बढ़े और इंदौर को अपना कर्म क्षेत्र बनाया है। बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (कम्प्यूटर  साइंस) करने के बाद एमबीए और एम.जे.की डिग्री हासिल की एवं ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियों’ पर शोध किया है। कई पत्रकार संगठनों में राष्ट्रीय स्तर की ज़िम्मेदारियों से नवाज़े जा चुके अर्पण जैन ‘अविचल’ भारत के २१ राज्यों में अपनी टीम का संचालन कर रहे हैं। पत्रकारों के लिए बनाया गया भारत का पहला सोशल नेटवर्क और पत्रकारिता का विकीपीडिया (www.IndianReporters.com) भी जैन द्वारा ही संचालित किया जा रहा है।

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।