सुबह की चाय के साथ ज्यों ही अखबार खोलकर बैठी,एक मन्द-सी मुस्कान अनायास ही मेरे चेहरे पर बिखर गई। पूरा अखबार डिस्काउन्ट सेल के विज्ञापनों से भरा पड़ा था..और हो भी क्यों नहीं,आखिर महिला दिवस (‘वूमन्स-डे’)जो था। इस तरह के क्षणिक आकर्षण ही तो ऐसे ‘डे’ के पर्याय बनते जा रहे हैं। मेरी मुस्कान देख मेरा 10 वर्षीय बेटा सहज ही कह उठा-‘क्या आप भी आज दिनभर शाॅपिंग करोगे?’
मैं उसे कैसे समझाती कि,आज के ही दिन मुझे जो उपहार मिला,उसके आगे सब फीके हैं। करीब 15 वर्ष पहले जब मेरी शादी हुई,तब हमारे समाज में लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने का रिवाज नहीं था। मैंने भी विद्रोह के स्वर को तजकर,मन की इच्छाओं को समेटकर सात वचनों में अपने-आपको बांध लिया। सब कुछ सही था,पर अनेक बार मन में पढ़ने की इच्छा लहरों का रुप लेकर उफान मारने लगती। लहरों के इस उछाल को कब सासू माँ की पैनी नजरों ने भांप लिया,पता ही नहीं चला। एक दिन वे अचानक कमरें में आई,और एक कागज थमाकर चली गई। वो आज ही का दिन था। जैसे ही मैंने कागज खोला,मेरे नयन कलशों से आँसू छलक गए। वो बी.एड. का फॅार्म था,जिसे करना मेरा सपना था। मैंने अपनी पूरी पढ़ाई उनके सहयोग से की। आज जब अपने पति अनिमेश के देहान्त के बाद अपने आपको सशक्त और स्वावलम्बी बना पाई तो, सिर्फ उस महिला(‘वूमन’)के कारण..जिसने दूसरी ‘वूमन’ के सपनों को रुढ़िवादिता के पिंजरे से आजाद कर उड़ने के लिए आकाश दिया।
‘आज स्कूल नहीं जाना है क्या?’ मेरे हाथ में टिफिन पकड़ाते हुए सासूमाँ ने ख्यालों से बाहर निकाला। स्कूल जाते वक्त पूरे रास्ते यही सोचती रही कि,काश सभी ‘वूमन्स’ को इन क्षणभंगुर प्रलोभनों से बाहर आकर अंतर्मन को तृप्त करने वाली सच्ची खुशी मिल सके..ताकि,साल के 365 दिन ही सच्चे मायनों में ‘वूमन्स-डे’ बन जाए। खुशी के लिए किसी दिन का मोहताज न होना पड़े।
#डाॅ. सीमा रामपुरिया
परिचय : डाॅ. सीमा रामपुरिया मौजूदा समय में में स्वतंत्र पत्रकार एंव लेखिका की भूमिका में हैं। आप इंदौर शहर के कुछ समाचार पत्रों के साथ ही सामाजिक पत्रों में भी लिखती हैं। पत्रकारिता में स्वर्ण पदक प्राप्त कर चुकी डॉ.रामपुरिया ने उप राष्ट्रपति मो.हामिद अंसारी से भी सम्मान पाया है। आप इंदौर में निजी कालेज में मीडिया प्राध्यापक हैं।