ज़रा-सी ठेस लगती है तो शीशा टूट जाता है, मग़र क्यूँ आइने को साथ पत्थर का ही भाता है। उसी को जानती है मानती है पूजती दुनिया, अँधेरी बस्तियों में जो बुझे दीपक जलाता है। लहर की प्यास क्या जाने वो इक मासूम-सा बच्चा, जो टूटे साहिलों पर भी घरौंदों […]
काव्यभाषा
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