बारिश बूॅऺद- सा, फैल रहा है… परेशां मजदूरों के गीत, सुर में है; रोटी की आवाज़ और रोते-बिलखते आदिम स्वर। फटे पैरों की बिवाई सा, वस्त्र भी हैं तार-तार, कंठ हैं सूखे;आॅऺखों में पानी की तरलता, भींगा मन; तन चट्टानों सा जलता, वेदना है जलती,पथ भी है कराहता। काली रात […]