विजयानंद विजय
उस दिन मेरी तबीयत ठीक नहीं थी।मगर काम ऐसा था कि उसी दिन जाना भी अत्यावश्यक व अपरिहार्य था।अनमने भाव से मित्र के साथ शाम छः बजे बस स्टैंड आया।राँची के लिए एक आखिरी बस थी।कंडक्टर केबिन में सीट दे रहा था।लेकिन जब हमने केबिन में बैठने से इंकार किया,तो उसने पिछले गेट से पहले वाली सीटें दीं।सड़क उन दिनों बहुत खराब थी और मरम्मत का काम भी चल रहा था।इसलिए बस बुरी तरह हिचकोले खाते हुए चल रही थी।डर लग रहा था कि कही बस उलट न जाए।धूल उड़ रही थी, सो अलग।
रात नौ बजे के करीब एक लाइन होटल पर बस रुकी।वहाँ खाने की अच्छी व्यवस्था थी।सबने खाना खाया।खाने के बाद कुछ लोग बस की छत पर सोने चले गये।छत पर चावल-गेहूँ के बोरे भी रखे हुए थे।रात में सड़क खाली थी।इसलिए बस पूरे रफ्तार से चली जा रही थी।सामने टी वी पर कोई फिल्म चल रही थी।अधिकांश यात्री सोने लगे थे।मेरे मित्र की भी आंख लग गयी थी।मुझे नींद नहीं आ रही थी – सो, कभी टी वी की ओर, तो कभी खिड़की से बाहर खिली चांदनी रात को निहार रहा था।सामने वाली तीन सीटों पर तीन महिलाएं बैठी थीं,जिनके साथ चार छोटे-छोटे बच्चे भी थे।सभी गहरी नींद में थे।बस करीब ढाई-तीन घंटे चल चुकी थी।मैंने घड़ी देखी – रात के बारह बज रहे थे।अचानक ” खट-खटाक ” की आवाज के साथ तेज झटका लगा,और बस रुक गयी।इस झटके से सभी यात्री जग गये।मैंने खिड़की से देखा – बस पुल पर थी, और आधी सड़क ,आधी पुल से लटकी हुई थी।नीचे सूखी नदी थी।चाँदनी रात में मैंने देखा – नदी के पत्थरों पर गेहूँ-चावल के बोरों के साथ अनेकों लोग गिरे – बिखरे – पड़े थे – खून से लथपथ!बस के अंदर चीख-पुकार मच गयी थी।बस का केबिन और अगला गेट बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था।भयावह दृश्य था।जहाँ हमारी सीट थी,बस वही हिस्सा सड़क पर अटका हुआ था।इसलिए,सभी यात्री इसी जगह आ गये थे।मैंने घबराकर बगल में बैठे मित्र को टटोला और जोर से चिल्लाया-” कृष्णा?” तो उनके शरीर में हलचल हुई।फिर मैंने लोगों से कहा- ” आपलोग हिलना-डुलना मत।हम सुरक्षित हैं।” तभी उन तीनों महिलाओं की कातर ध्वनि सुनाई पड़ी ” मेरे बच्चे!कहाँ गये?” चारों बच्चे सरककर हमारी सीटों के नीचे आ गये थे।कृष्णा ने हाथ सीट से नीचे डाला और एक-एक कर चारों बच्चों को बाहर निकाला।संयोग से चारों बच्चे सुरक्षित थे।फिर मैंने तीनों महिलाओं की सीट से लगी, सड़क की ओर वाली खिड़की पर जोर से लात मारकर शीशा तोड़ा।तब तक बाहर सड़क पर लोग जुट गये थे।सबसे पहले हमने एक-एक कर उन तीनों महिलाओं को बच्चों के साथ बाहर निकाला।फिर बस में सवार करीब चालीस-पैंतालीस यात्रियों को खिड़की के रास्ते सुरक्षित बाहर भेजा गया, और आखिर में हम दोनों बाहर निकले।हमारे बाहर आते ही, बस नदी में पलट गयी।सभी स्तब्ध – अवाक् रह गये।मौत हमें छू कर निकल गयी थी।न जाने किस दैवीय शक्ति ने हमें बचा लिया था।हम ईश्वर को धन्यवाद दे रहे थे – सचमुच मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है।अपने परिवार के साथ मेरी बगल में खड़े एक बुजुर्ग सहयात्री मुझे पकड़कर रोने लगे।
वर्षों बीतने के बाद ,आज भी जब जाने-अनजाने वह खौफनाक मंजर स्मृतियों में कौंधता है,तो रोम-रोम सिहर उठता है।मौत की राह से निकली जिंदगी के वे पल याद आते हैं।गर्व की भी अनुभूति होती है कि ईश्वर ने कितनी जिंदगियाँ बचाने का हमें माध्यम बनाया।
लेखक परिचय : लेखक विजयानंद विजय बक्सर (बिहार)से बतौर स्वतंत्र लेखक होने के साथ-साथ लेखन में भी सक्रिय है |
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