ओमप्रकाश वाल्मीकि कृत `जूठन` में दलित चेतना 

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hetal chouhan

मैंने जब ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा लिखी `जूठन` आत्मकथा का भावन करके उसे आत्मसात् किया,तब मेरे मन में जो संवेदना,जो प्रश्न उठे,उसी को मैं सामने रखकर वाल्मीकि जी के प्रति अपनी शब्दांजलि प्रकट करना चाहती हूँ,क्योंकि कथा तो सब पढ़ते हैं लेकिन उस कथा में से जो संवेदनाएँ निकलती हैं उसे आत्मसात् करना ज़रूरी है।

मराठी दलित साहित्य में दलित आत्मकथाओं का दौर काफ़ी लंबे समय तक चला,जो आज भी जारी है।दलित आत्मकथाएँ मराठी साहित्य की श्रेष्ठतम उपलब्धि है काफ़ी समय से हिन्दी दलित आत्मकथा लिखने का क्रम चल रहा है।`मेहतर` समाज के इतिहास को आत्मकथा के रूप में पेश करने वाली भगवानदास की `मैं भंगी हूं` पुस्तक की अभी तक कई आवृत्तियाँ निकल चुकी हैं।सन १९९४ में ‘आज का प्रश्न’ परम्परा के निहित राजकिशोर द्वारा संपादित पुस्तक-‘हरिजन से दलित’ में ओमप्रकाश वाल्मीकि का आत्मकथा विषयक आलेख-‘एक दलित की आत्मकथा’ के प्रकाशित होने तक उसकी कोई विशेष चर्चा नहीं हुई थी,परंतु सन १९९५ में मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा‘अपने-अपने पिंजरे’ के प्रकाशित होते ही भगवानदास की ‘मैं भंगी हूँ’ की सभी जगह चर्चा होने लगी। इसकी नई आवृत्ति के आते ही यह एक दलित आत्मकथा के रूप में प्रसिद्ध हो गई और इसे ही हिन्दी की प्रथम दलित आत्मकथा कहा जाने लगा। इसके बाद भारतीय सामाजिक बुराइयों को प्रकट करने वाली ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की दिल दहला देने वाली ‘जूठन’ आत्मकथा की पहली आवृत्ति राधाकृष्ण प्रकाशन से सन १९९७ में छपी।

आत्मकथाकारों के लिए सबसे विंडबनाजनक अगर कोई बात है तो वह यह है कि,वो लोग वास्तविक जीवन तो एक बार जी चुके होते हैं,किन्तु जब आत्मकथा लिखने का समय आता है,तब उनको वही कष्टदायी जीवन फिर से जीना पड़ता है।उस पर भी दलित आत्मकथाकारों के लिए यह घटना पीड़ाजनक,दुःखदाई बन जाती है। ऐसी ही कुछ दुविधा आत्मकथा लिखते वक्त ओमप्रकाश जी को हुई थी,जिसका जिक्र करते हुए उन्होंने इस आत्मकथा की प्रस्तावना में कहा है-इन अनुभावों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे।एक लंबी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया।तमाम कष्टों,उपेक्षाओं,प्रताड़नाओं को एक बार फिर से जीना पड़ा। उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएँ मैंने भोगीं। स्वयं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए कई बार लगा कितना दुःखदायी है यह सब। कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है,पर जो सच है,उसको सबके सामने रख देने में संकोच क्यों?,बस यही सोचकर उन्होंने इन कष्टदायी अनुभवों को आत्मकथा के रूप में साकार करके हमारे समक्ष रख दिया।

बालक ओमप्रकाश को मोहल्ले के एक ईसाई सेवकराम मसीही के हाथों बिना कमरों की खुली स्कूल में अन्य दलित बच्चों के साथ प्रारंभिक शिक्षा के तौर पर पहले-पहल अक्षरज्ञान प्राप्त हुआ। सेवकराम से उनके पिताजी की कुछ खटपट हो जाने पर बालक ओमप्रकाश की स्कूल बंद हो गई। अपने बच्चे का दाख़िला गाँव की बेसिक प्राईमरी स्कूल में करवाने के लिए उनके पिताजी ने मास्टर हरफूलसिंह के आगे शिक्षा जैसे सार्वजानिक अधिकार को पाने के लिए गिडगिड़ाकर कहा था-मास्टरजी,थारी महेरबान्नी हो जागी जो म्हारी जातक(बच्चे)कू बी दो अच्छर सिखा दोगे। यहाँ पर हम देख सकते हैं कि,ओमप्रकाश जी के पिताजी शिक्षा का महत्त्व समझते हैं और वे इस बात के लिए जागरूक भी हैं कि,आज हम शिक्षा के बिना ही दयनीय दशा में हैं,इसलिए वे कहते रहते थे-‘पढ़-लिखकर अपनी‘जाति’ सुधारो।` उस जमाने में दलितों के बच्चों को जैसे-तैसे स्कूल में दाख़िला मिल भी जाता था,तो भी स्कूल के शिक्षक उन बच्चों को सताते थे,अपनी सेवा करवाते थे,उनको मारते-फटकारते एवं उनका शोषण भी करते थे। शिक्षकों द्वारा दलित बच्चों के साथ कठोर यातना का यह सिलसिला प्राथमिक स्कूलों के साथ ही शुरु हो जाता था,जो बड़ी कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते जातीय भेदभाव का रूप ले लेती थी। यह अस्पृश्यता शारीरिक रूप के बजाय बौद्धिक व मानसिक रूप में ज्यादा होती थी। शायद इस मानसिकता की वजह से ही बृजपालसिंह अध्यापक ने बालक वाल्मीकि को प्रैक्टिकल में फेल करते हुए उनका भविष्य अधर में अटका दिया था। इसी मानसिक अस्पृश्यता की बात का समर्थन करते हुए शरणकुमार लिंबाले जी ने अपनी पुस्तक ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशात्र’ में लिखा है-ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में दलित पीड़ा के आयाम को दर्ज करने के साथ-साथ,सवर्ण-अभिजात मानसिकता के नासूर को उकेरा,जो शिक्षा के क्षेत्र में भी अबोध बालकों के स्तर तक दोहरे मापदंड का इस्तेमाल कर भारतीय मानस को दुराव,छल,कपट के जहर से मारता रहा है।

इस आत्मकथा में ऐसे कई प्रसंग और घटनाएँ हैं,जो ब्राह्मणवादी पोषकों के जातिवादी चरित्रों,परम्पराओं,रीत-रिवाज़ों और प्रथाओं के खिलाफ़ बगावत का संकेत देती है। ऐसी दो घटनाओं को हम यहाँ देखेंगे। पहली घटना है-सुखदेवसिंह त्यागी की बेटी की शादी की,जिसकी तैयारी के तहत ओमप्रकाश जी के माता-पिता ने दस-बारह दिनों से सुखदेवसिंह त्यागी के घर की साफ़-सफ़ाई से लेकर मजदूरी के सारे काम किए थे,लेकिन जब शादी के दिन उनकी माँ द्वारा बारातियों की जूठन के बावजूद अपने बच्चों के लिए खाना माँगा,तब सुखदेवसिंह त्यागी ने उनका कड़े शब्दों में धुत्कार कर अपमान किया। इस बात का उनकी माँ के स्वाभिमान पर इतना गहरा असर हुआ कि,उन्होंने लिया हुआ जूठन वहीं फेंक दिया। एक शेरनी की तरह सुखदेवसिंह का सामना करते हुए अपने घर चले गए और उनके परिवार में उस दिन से ‘जूठन’ का उपक्रम बंद हो गया। हम यहाँ देख रहे हैं कि,उस ज़माने में भी स्त्री जागरुक थी,इसलिए वे बिना पढ़े-लिखे अपने मान-अपमान,स्वाभिमान के प्रति भी सजग थी। दूसरी घटना ओमप्रकाश जी के पिताजी द्वारा‘सलाम’ नामकी कुप्रथा का विरोध करने की है। इस प्रथा के तहत दुल्हा-दुल्हन को अपनी-अपनी ससुराल में उनकी सास जिस-जिस घर में सफ़ाई का काम करती थी,उस-उस घर में अपनी सास के साथ सलाम करने जाना पड़ता था।जब ओमप्रकाश जी के भाई जनेसर और बहन माया की शादी हुई,उस वक्त उनके पिताजी ने सलाम प्रथा को निभाने से मना करके एक क्रांतिकारी क़दम उठाया। सदियों से चली आ रही इस कुप्रथा को ओमप्रकाश जी ने खुद अपनी आत्मकथा में ‘जातीय अहम की पराकाष्ठा’ कहा है। ओमप्रकाश जी की इस बात का समर्थन देते हुए मनोजकुमार पटेल द्वारा संपादित पुस्तक ‘भारतीय दलित साहित्य’ में डॉ. स्मिता पटेल ने अपने आलेख ‘दलित साहित्य का सामान्य परिचय’ में जूठन आत्मकथा को दलित शोषण का जीवंत दस्तावेज़ कहा है।

दलितों को सिर्फ़ सवर्ण समाज से ही संवेदना मिली है,ऐसा नहीं है,बल्कि दलितों को दलितों से भी उतनी ही संवेदना मिली है जितनी सवर्ण समाज द्वारा प्राप्त हुई है। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है-बालक ओमप्रकाश का पहली बार बैल की खाल उतारकर घर लाने का। एक बार ब्रह्मदेव तगा का बैल मर जाने पर बालक ओमप्रकाश की माँ ने उनको अपने चाचा के साथ उस बैल की खाल उतारने के लिए भेजा। चाचा ने थोड़ी देर खाल उतारकर बालक ओमप्रकाश के हाथों में छुरी पकड़ाकर खाल उतारने के लिए कहा। बालक ओमप्रकाश ने काँपते हुए हाथों से जैसे-तैसे खाल तो उतार दी,किन्तु उनके चाचा ने घर लौटते वक्त बस अड्डे के पास खाल की गठरी बालक ओमप्रकाश को दे दी। बालक ओमप्रकाश ने गिड़गिड़ाकर रोते हुए चाचा को गठरी उठा लेने की विनती की,परंतु चाचा ने उनकी एक न सुनी। पूरे रास्ते में बालक ओमप्रकाश को एक ही डर रहा कि,अगर उनके सहपाठियों ने देख लिया तो वे स्कूल में उनको तंग करेंगे। उस समय ओमप्रकाशजी ने जो यातना भुगती,उसके जख्म उनके तन पर आज भी ताज़ा हैं और दूसरा उदाहरण है-उनकी गोत्र को बदलने के लिए उनके परिवारजनों और उनकी पत्नी का बार-बार टोकना।ओमप्रकाशजी को उम्रभर अपनी गोत्र ‘वाल्मीकि’(भंगी) की वजह से दलित जीवन की परिहासभरी स्थिति,जाति-व्यवस्था से उत्पन्न छुआछूत के दंश,व्यथा,यातना और अपमान को सहना पड़ा है। यहाँ तक कि,उनकी पत्नी चंदादेवी भी वक्त-बेवक्त उनको इसे बदलने के लिए कहा करती थी। आखिर तंग आकर उनकी पत्नी ने कहा था-`हमारे अगर कोई बच्चा होता तो मैं उनका गोत्र  ज़रूर बदलवा देती,तब यहाँ जाति विषयक समस्या कितनी गंभीर है?,यह सोचने की जरूरत है,फिर भी ओमप्रकाशजी ने अपना गोत्र तो नहीं बदला,बल्कि ‘वाल्मीकि’ के साथ अपने जातीयबोध की आत्मस्वीकृति का लंबा सफ़र तय करके दलित अस्मिता की पहचान कराने में अपनी सार्थकता सिध्द की।

ओमप्रकाशजी ने इस आत्मकथा का सृजन सवर्ण समाज उनका हाथ पकड़े,उनके प्रति हमदर्दी दर्शाए या उनको किसी तरह की आर्थिक सहायता करे,इस उद्देश्य से नहीं किया,बल्कि स्वयं(खुद)ने जो जीवन जिया है,उस जीवन को सवर्ण समाज के सामने प्रत्यक्ष करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य रहा है,अत: यह आत्मकथा भारतीय समाज की निचली सीढ़ी के लोगों के जीवन की संगतियों,गुणों-अवगुणों का खुलासा ही नहीं करती,बल्कि उनके अशिक्षा,अज्ञान,झाड़-फूंक,रीत-रिवाज,प्रथाओं की छवि को भी बड़ी सिफत के साथ समाज के सामने उजागर करती है।जमींदारों की शोषणकारी बेगारी प्रथा का बयान भी इस आत्मकथा में आया है,जो इसके सुधार के महत्त्व की ओर इशारा करती है,लेकिन जो व्यक्ति दलित वातावरण में पला-बड़ा न हो,वह इस बेगारी की प्रथा की बर्बरता या क्रूरता समझ नहीं पाएगा। आजीविका के सभी साधनों से वंचित रखे गए इन लोगों से वे सारे काम करवाए जाते थे,जिसकी याद मात्र से उच्च कुल के लोगों को ‘घिन’ आती है और यह ‘घिन’ भी कार्य से कम व्यक्ति से ज्यादा आती है।

इस प्रकार हमने देखा कि,ओमप्रकाशजी ने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में अपने दलित जीवन की पीड़ाओं,व्यथाओं,उपेक्षाओं तथा दु:खों को व्यक्त किया है। ‘जूठन’ उनके जीवन के अनुभवों की सृजन की प्राप्ति है। यह आत्मकथा एक तरफा एवं आत्मगत न होकर पूरे समुदाय की भी है। भारतीय समाज का पूरा इतिहास,पूरा वृत्तांत इसमें समाया हुआ है।

‘जूठन’ ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की एक ऐसी आत्मकथा है,जो न केवल मन में गहरी करुणा की भावना जगाती है लेकिन हमें गहराई से सोचने पर विवश करती है कि,हम किस सदी में जी रहे हैं? क्या सवर्ण समाज की जूठन खाने को हम आज भी विवश हैं? क्या सवर्ण समाज ने गांधीजी,टैगौर जैसे राष्ट्र पुरुषों ने यरवदा जेल में पूना करार के वक्त डॉ. आम्बेडकर को दिए हुए उन वचनों को पूरा किया है? क्या अछूतों की उध्दार की मुहिम का यह परिणाम होना था? ये और ऐसे कई सवाल आज साथ साल के बाद भी हमारे सामने मुंह पसारे खड़े हैं।

इस आत्मकथा का एकसाथ कई दिनों तक अध्ययन करते हुए मुझे कई बार ऐसा लगा कि,मुंह से स्वाद ही चला गया हो। अंत में इतना ही कहना है कि,इस आत्मकथा में ओमप्रकाशजी ने शोषण का जो विवरण किया है,वह कोई पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर नहीं किया है ,बल्कि यथार्थ का विवरण करके बधिर बन रही नगरीय संवेदना को उड़ेलने का,ढालने का काम किया है। कहा जाता है कि,कथा और उस पर भी युध्ध की कथा रम्य होती है,किन्तु इस आत्मकथा में जो कथा है वह रम्य तो क्या,गम्य भी नहीं है।

#डॉ. हेतल जी. चौहाण

परिचय : डॉ. हेतल जी. चौहाण गुजरात के सूरत में रहती हैं। लेखक,अनुवादक, संशोधक के रूप में सक्रिय हैंl

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