
1. घर से जातीं बेटियाँ
ओ मेरी लाड़लियों!
सुनो बेटियों!
ये पथ तुम्हारी याद दिला रहा है।
तुम आती हो, बहारें छा जाती हैं।
जब जाती हो, पतझड़ चला आता है।
सूखा बियाबान-सा सन्नाटा,
बस, पत्तों की खड़खड़ का एहसास।
तुम छोड़ जाती हो कुछ ओस की बूंदें,
कुछ यादें, कुछ हरियाली,
जैसे रह गये पथ पर खड़े ये चिनार और देवधर।
मानो तुम भूल गयी हो अपनी,
खिलखिलाती हँसी और नटखट शरारतें।
तुमने साथ नहीं ली यहाँ की वटवृक्ष की छाया,
जैसे अपनी दुआएँ दे गयी हों हमें।
हमारी ख़ुशियाँ माँगती तुम,
जानबूझकर भूलने का अभिनय करती।
तुम थोड़ा-थोड़ा यहीं रह जाती हो
अपने बनाये मिट्टी के घरकुल में,
इस पथ में खेलती पव्वा लट्टू में,
बिखरे बालों वाली कानी गुड़िया में,
सड़क पर बेचती उस बुढ़िया की खट्टी-मीठी इमली में,
सबमें बसकर तुम निकल पड़ती हो।
तुम जाओ बिटिया! इस पथ से।
कंकड़-पत्थर ज़रूर चुभेंगे तुम्हें,
सह लेना, पी जाना दर्द तुम।
सूखे पत्ते जीवन में खड़खड़ायेंगें,
मधुर संगीत-सा बना लेना तुम।
इस पथ पर आगे ख़ूबबसूरत वादियाँ हैं,
हरा-भरा बाग़बान है,
सुंदर गुलाब, सेवंती, मोगरा के फूल हैं।
इस दुर्गम पथ को पार कर जाओ,
तुम्हें बहारें मिलेंगी।
हर पतझड़ के बाद सावन आता है,
सावन तुम आत्मसात कर लेना।
अबकी बार,
जब भी आना, हरियाली लेकर आना,
ओस की नन्ही बूंदों को पत्तों पर छोड़ जाना,
प्यार और स्नेह की छाँव दे जाना,
माटी की सौंधी ख़ुशबू छोड़ जाना,
भीनी-भीनी समीर के झोंके बिखेर जाना,
रिश्तों की लताओं को बाँध जाना।
ओ लाड़लियों!
सुनो बेटियों!
बहुत याद आती हो इन पतझड़ में,
सावन-सी बरसना ज़रूर।
ओ लाड़लियों…..
■
2. महिला जन्म नहीं लेती, बनती है
ओ स्त्री!
तुम पैदा नहीं हुई,
तुम बना दी गई हो।
तुमने तो यह जहां बनाया,
तुमने ही जन्म दिया मानव को।
तुम माँ बनी,
सौ शिक्षकों के बराबर
तुमने सभ्यता, संस्कृति, परंपरा दी।
मानव ने उसे असभ्यता जंगलराज में बदला,
तुम्हारी मातृ सत्ता को छीनकर
पितृसत्तात्मक राज्य स्थापित कर लिया।
तुमने तो त्रिदेव का भी रुख बदला,
कभी अनुसूया और कभी अहिल्या बनी,
तुमने बरसों बरस पत्थर की शिला बनकर
वर्षा शीत और ग्रीष्म की मार सही,
फिर भी तुम डिगी नहीं।
तुम सीता, द्रोपदी, तारा बनकर शोषित होती रही,
परंतु अब तुम उठ खड़ी हो गई हो।
न तुम पत्थर की शिला हो,
जिसे ठोकर मार कर कोई पुरुष जगाएगा,
और न ही तुम यशोधरा,
जिसे एकाकी छोड़कर तप
किया जा सके।
तुम स्वयं तपस्विनी हो,
ईश्वर का अंश हो।
तुम नहीं त्यागती किसी को,
अपनाती हो।
चूल्हा-चौका करती तुम,
लालन-पालन भी करती हो।
आज की नारी हो,
जो रचती है द्रुपद तान-सी रचना,
जिसने उतार फेंका है,
दीनता और कमज़ोरी का चोला।
जो करती है तुम्हारे भाग्य का निर्माण,
अपने हौंसले और साहस से।
आगे बढ़ती स्त्री, तुम स्त्री हो,
जन्म से नहीं,
बुनी गई हो,
घढी गई हो।
फिर भी हो,
डॉक्टर, टीचर, इंजीनियर,
विचारक, दार्शनिक और संरक्षक।
तुम कुचलना चाहते हो उसे,
दो तरफ़ा बाँट देना चाहते हो।
उसने भी दस हाथ और चार आँखें
धारण कर ली हैं।
वो कायम रखे हुए है यह दुनिया,
उसने सूरज को उगा रखा है।
तुम्हारे विचार और चिंतन भी उसकी देन हैं,
तुम्हारा लेखन और संपूर्णता भी,
सभी कुछ उसका है…
सब कुछ,
तुम्हारा कुछ भी नहीं
क्योंकि…
क्योंकि….
तुमने जन्म लिया है और
उसने बनना स्वीकार किया है।
स्त्री! तुम स्वयं बनी हो,
स्वयं गढ़ी गई हो,
बुनी गई हो,
गुनी गई हो।
उसके अस्तित्व को स्वीकार करो,
अन्यथा
रह जाएगा
इस पृथ्वी पर
बस एक
शून्य….
■
3. इक दिया देहरी पर
रोज़ सांध्यबेला में देहरी पर
रखती इक दिया,
तकती राह ,
सुरमई-सी शाम में
रोशनदान में चिड़िया ने अपने घोंसले में
नन्हे-नन्हे बच्चों को छुपा लिया अपने ड़ैनों में।
कहीं दूर से आवाज़ आ रही मंदिर के घंटों की,
गोधूलि बेला ने ओढ़ ली है चुनरिया मटमैले रंगों की,
मानो कोई मज़दूरन काम से घर लौट रही हो।
आवाजाही मोटर गाड़ी रिक्शा की,
धरा घननाद, अकंपन से अचकचाकर सुप्त है।
इक नन्हा दीया टिमटिमा रहा है मेरे द्वार पर,
इक ऊँची देहरी बनी है द्वार के बीच।
देहरी के कोने में स्थापित वो दीया,
संग बैठी मैं प्रतीक्षारत सतत्
अब नहीं मिलती देहरी द्वारों पर,
अब सीधे-सपाट द्वारों के बीच पांवपोश सुशोभित,
कोई दीया नहीं जलता अब,
आस का, प्रतीक्षा का, प्यार का, स्नेह का,
रोज़ जलाती हूँ दीया देहरी पर।
तारे टिमटिमाने लगे हैं आकाश में,
कोई तारा टूटकर ज़मीं पर आने को बेताब,
नये सपने लिये वसुंधरा पर उतरेगा,
दोस्ती करेगा मेरे इस नन्हे दीये से।
फिर से जगायेगा
नई उमंग, नई तरंग, नये भाव, नये शब्द
और नये स्वप्न।
मैं आस लिए हुए,
सांध्य बेला में,
मैं रोज़ जलाती हूँ इक दीया देहरी पर।
■
4. शिवोदय रचनाकार
मैंने देखा नहीं,
महसूस किया वह एहसास
वह सूक्ष्म-सी अणुशक्ति
जो कभी भी उपजती है
विरोधाभासी विचारों से
गुस्से और नफ़रत से
फिर बदल लेती है एक रूप आकर्षण का
मौन होकर समझते आँखों के
समंदर-सी गहराई में खोने की चाहत से
इक तरंग शिवांश के ब्रह्मांड से निकलती-सी
जो ढूंढ लेती है सिर्फ़ एक
सूक्ष्म आत्मा भावाभिव्यक्ति को
पूरे कायनात में सिर्फ़ वही नज़र आता है
बस वही उसके सामिप्य और संवाद से
ईश्वरीय चेतना का बनोपजता भाव
बन जाता है प्यार का विस्तृत संसार
यही है क्या त्रिदेव की मानवों को देन
जो हम भी रचना चाहते हैं उस पर
अनेक काव्य, गजल ,गीत जैसे पावन अंश
बना देते हैं एक चिरंतन कालजयी रचना
जो कहलाते हैं ईश्वर की अनुपम देन प्यार और
हम उसके
शिवोदय रचनाकार
■
5. मेरा प्रेम- तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा
मैंने प्रेम किया था
बिना किसी आकांक्षा के
विस्तृत प्रेम नीलांबर-सा
इंद्रधनुषी रंगों में साराबोर
लगता आकर्षक, बेहद ख़ूबसूरत
अपनी ओर आमंत्रित करता
परन्तु इंद्रधनुष तो क्षणिक है
मात्र छलावा-सा, जादू-सा
इक भ्रम, इक झूठा स्वप्न
जो नींद खुलते ही गायब हो जाए
तुम भी वहीं तो थे
अपनी इंद्रधनुषी महत्त्वाकांक्षाओं से घिरे
सतरंगी सपने दिखाते से
अचानक भ्रमित करके लौट गये
ऊँचे और ऊँचे नीले आकाश में
अपनी सफलताओं की सीढ़ियाँ चढ़ते
सिंदूरी रंगों से आच्छादित ख़्वाब लिए
मेरे भीगते कोमल प्रेम को बिसराकर
गुम हो जाना चाहते हो
कहीं और अपना इंद्रधनुषी रंग बिखरने
चल पड़े हो अपनी महत्त्वाकांक्षा
के घोड़े पर सवार होकर
मैं अपनी प्रेम बदली संग
प्रतीक्षारत बरसने को
परन्तु तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा भारी है
मेरी इस छोटी-सी चाहत के बनिस्बत
क्योंकि
मैंने प्रेम किया है और
तुमने महत्त्वाकांक्षा
■
6. माई का पल्लू
आज कविता में कहानी सुनाती हूँ,
एक अनमोल ख़ज़ाने से आपका परिचय कराती हूँ।
यह बिना कुंजी ताले का गहना है,
इसे हम सबकी माँ, दादी, नानी ने पहना है।
यह उनकी साड़ी के सिरे का वह पल्लू है,
जिसके आगे कीमती हीरे,जवाहरात, सोना भी धूल है।
उस पल्लू की गाँठ से
पाँच, दस, पच्चीस, पचास के सिक्के निकल आते थे,
कुल्फ़ी, चॉकलेट, टिकुली, चूड़ी, बिंदी
जैसे हमारे हर छोटे-बड़े अरमान पूरे हो जाते थे।
जिनकी क़ीमत हमारे लिए हज़ारों-करोड़ों डॉलर थी,
और
छोटी-सी हमारी यह चाह जीवन की
हर महत्त्वाकांक्षा पर भारी थी।
खेलकूद कर, थक कर चूर होकर
मां की गोद में सर रखकर जब भी सोते
वह पल्लू आंचल बनकर फैल जाता
हमारे सर पर सुकूं से
उस पल्लू से अचार ,मसाले, आटे और चंदन
की खुशबू आती थी,
कभी वह पल्लू भगवान के फूलों की ख़ुशबूदार
स्प्रे की डलिया बन जाती थी।
उससे कभी तो हमारे सिर का
पसीना और गीला मुँह पूछा जाता था,
कभी साथ ही भगवान का घर भी
पूजा करते समय झाड़ दिया जाता था।
वह पल्लू क्या थ!, वह पल्लू क्या था!
एमबीए किया हुआ स्मार्ट सा एच आर था,
जिसके पास किसी व्यावसायिक कंपनी का
पूरा मैनेजमेंट फंडा था।
बाज़ार का झूला भी उसके आगे छोटा पड़ जाता था,
हमारी ज़रूरतों का तो वह
पूरा सरकारी कोटा बन जाता था।
नटखट कान्हा-सी शरारतें कर
हम पल्लू के पीछे छिप जाते थे,
पापा के हिटलर और मुसोलिनी जैसे अंदाज़
भी उनके आगे ठंडे पड़ जाते थे।
हम बच्चों को तो वह किसी परी के
जादुई पिटारा-सा लगता था,
ऐसा शीतल था कि बूढ़ी बूढ़े बरगद
की ठंडी छाँव-सा लगता था।
क्या कहूँ, कितना याद आता है वह पल्लू,
मैं पहनूं सलवार, कुर्ता या जींस-शर्ट
कविता बनकर मेरा सीना ढांक जाता है यह पल्लू।
झूलती हूँ जब भी सैंडविच दो पीढ़ियों के बीच
धीरे से आकर मेरा सिर चला जाता है यह पल्लू,
माँ की तरह मैं भी ढांक लेती हूँ माथा
मेरे बच्चों को संस्कार और परंपरा की
परिभाषा बतला जाता है यह पल्लू।
इसी तरह मेरी बेटियों के पास भी पहुँच जाता है यह पल्लू,
मेरे बच्चों की विरासत बन जाता है यह पल्लू।
और
मुझमें माँ और नानी की छवि
दिखला जाता है यह पल्लू,
छवि दिखला जाता है यह पल्लू।
■
7. निवाड़ कसते दाऊजी
दाऊजी
घर की कसावट थे
जब भी ढीली पड़ती
खटिया की निवाड़
दाऊजी उसे बराबर करते
जैसे
घर की कमियों को
ठीक कर रहे हों
निवाड़ की एक-एक पट्टी
संवारते,
धीरे-धीरे हाथों से लपेटते
लपेट रहे हों, संवारते से
हम बच्चों का भविष्य
दांतों के बीच
जीभ को दबाए
कलाकारी दिखाते
जैसे कांधे पर बैठाए
मेला घुमा रहे हों हमें
एक पट्टी पर दूसरी पट्टी
कसते जाते
मानो संस्कार परम्पराओं को मज़बूती से बांध रहे हों
धीरे से सहलाते, पट्टी बैठाते
लगता
उंगली पकड़ पाठशाला
छोड़ने जाते
पशु-पक्षी, पेड़-पौधों
से परिचित कराते
खटिया की निवाड़
पर रंगों की कूची चलाते
उसी सुघड़ता से
हमें सीख देते,
प्रकृति और किताबें
अनमोल हैं
जैसे-जैसे ताक़त से
कसते जाते निवाड़
रिश्तों की कसावट भी
समझ में आने लगती
वो निवाड़ी खटिया
प्रेम और सम्बन्धों की
असली पहचान कराती
जब भी कूदते खटिया पे
दाऊजी धीरे से मुसकाते
कह पड़ते
अब फिर से कसनी पड़ेगी
ये निवाड़
इसी कसावट ने
बांध रखा है घर-परिवार
वे नहीं कसते
तो कब से ढीली
हो जाती ये भावना की निवाड़
ये भाई, भाभी, बई, दादा,
काक, काकी, बुआ, मामा
के रिश्तेदारी की निवाड़
खुल जाती उसकी गाँठ
दाऊजी ही थे
कसकर गाँठ लगाकर गये हैं
उस पायताने पर
ये निवाड़ की रंगबिरंगी
पट्टी
की तरह जब भी
मेरे कर्मबंध, रिश्ते कमज़ोर होते हैं
कसने लगती हूँ
उन्हें संवारकर
मैं भी
दाऊजी की तरह
बन जाती हूँ
दाऊजी जैसी ही
मैं दाऊजी की बेटी
■
8. मत मुस्कुरा शीत में
वो फिर भी मुस्कुरा रहा था
उसकी श्वेत दाढ़ी मौन थी
बर्फ़ के तिनके अठखेली कर रहे थे
आँखों में जल पनिया रहा था
पुतलियाँ बतियाने लगी थीं
मन पंछी उकड़ूं बैठा था
कंपकंपाती शीत लहर
उसका शरीर शिथिल है
हाड़मांस जम गये हैं
वो फिर भी मुस्कुरा रहा है
उसने इच्छाओं को कसकर बांध रखा है
ख़ुद को आज़ाद कर दिया है
उसके अंदर सांझा चूल्हा है
तंदूर जल रहा है
मिस्सी रोटी, तंदूरी पक रही है
वो निगल नहीं सकता रोटी
कैसे निगले?
उसके पास मुँह ही नहीं
फिर भी वो मुस्कुरा रहा है
वो बैचेन है
खेत उगा नहीं, पका रहा है
पकता नहीं अन्न
कच्चा ही रह जाता है
उसकी मिट्टी में ख़ुशबू भी नहीं
मटमैली ज़मीन
आंसू उगल रही है
फिर भी प्यासी है
दरारें हैं उसकी छाती में
उसके संग
फिर भी वो मुस्कुरा रहा है
शीत प्रकोप ज़लज़ले-सा
स्वर्ण नहीं बो सकता वो
उसे बर्फ़ ही बोनी पड़ेगी
हल नहीं चला सकता
अब बर्फ़ीली हवा चलायेगा
बालियाँ नहीं उगतीं अब
अब उगती है उसकी दाढ़ी
जिसमें ड़ेरा जमा लिया है
बर्फ़ की श्वेत महीन कण बालियों ने
इस जमा देने वाली ठंड़ ने
तंबु तान लिया है उसके सफ़ेद बालों में
वो जानता है
अब वो नहीं, दाढ़ी ज़िंदा है
फिर भी वो
मुस्कुरा रहा है।
■
9. अचार-सी ज़िंदगी
आहा! ज़िंदगी,
वाह! ज़िंदगी।
मर्तबान में रखी पुराने अचार-सी,
खट्टी-मीठी और तीखे मसालों-सी।
रिश्तों में भी घुलती जा रही ज़िंदगी,
गुजरते, दिलों में सहेजते, बसते।
धीरे-धीरे घुलते-पकते फांकों-सी,
पहचान बनाती जा रही ज़िंदगी।
कंड़े के धुएँ-सी,
अंगार को भरभराती-सी।
मर्तबान में सौंधी ख़ुशबू-सी,
परिपक्व नमकीन-सी ज़िंदगी।
जैसे-जैसे पुरानी होती जाए,
अचार पे लगे फफूंद-सी।
फिर से ऊपर-नीचे हिलते मर्तबान-सी,
खराब से कड़वे स्वाद-सी,
मन को भी थकाए ज़िंदगी।
सधी उंगगलियों से केरी सहलाती,
पुनः स्वादिष्ट अचार-सी,
मुँह में पानी ले आए।
सबको महकाए ये ज़िंदगी,
अचार-सी होती जाए ज़िंदगी।
आहा! ज़िंदगी,
वाह! ज़िंदगी।
■
10. वो बेलती रोटियाँ
वो बेल रही रोटी,
बना रही रोटियाँ गोल-गोल, फूली हुई।
आ-जा रहे अनेक भाव और विचार,
जैसे-जैसे गढ़ती रोटी,
संग संग भाव भी गढ़ने लगती,
शब्दों की अठखेली करने लगती।
ये शब्द गढ़ने को आतुर,
वो
कलम थामने को मचलती उंगलियाँ
पर, रोटियाँ बेलती वो शब्द कैसे गढ़े!
भूख प्राथमिकता है, शब्द दोयम।
जब पेट की आग भड़कती है,
भाव कहीं विलुप्त हो जाते हैं।
शब्दों और भावों को विलासिता की उपाधि मिलती है।
नहीं!
भूख के साथ भावों को भी बहने दो।
वो सोचती है,
भाव कैसे अनुपयोगी हो सकते हैं!
वो बेलती है रोटियाँ,
वो गढ़ने लगती है भाव भी।
वो विलासित नहीं, दर्द, मर्म, प्रेम, ममता हैं उसके,
उसके खालीपन और सूनेपन के साथी।
तभी तो रच लेती है अद्भूत कालजयी,
बना लेती है हृदय को भेदता-सा काव्य।
वो बेलती है रोटियाँ,
साथ में उठा भी लेती है कलम।
अपनी जिजीविषा और संघर्ष की दास्ताँ
उकेरती है, शब्दों में गढ़ती है,
मन को भिगोती है,
आँसूओं से लरजती है,
दर्दभरी मुस्कान और भरे नैनों के कटाक्ष पीड़ादायक।
वो बेलती है रोटियाँ,
अनन्त युगों तक बेलती है रोटियाँ,
मिटाती है सबकी भूख,
स्वयं रहती भूखी, आधा पेट भरती।
कलम भी तो भूखी है उसकी, बीच में छोड़कर,
करती अन्य कार्य कलाप की कवायद।
अधूरे रह जाते जज़्बात उसके,
तड़प उठती वो उसे धरा पर लाने को बेताब।
पकड़ती हर सिरा उसका,
थामती उसकी पंक्तियों को सहलाती,
कहीं छूट न जाए कुछ,
न रह जाए सूना-सा रचनात्मक संसार।
बरस पड़ती बदली-सी,
काव्य की धारा में बह जाती,
कड़कती बिजली सी ऊर्जा लिए,
बेचैन-सी वो शब्दों को नहीं,
भावों को उकेरती है।
हाँ! वो बेलती है रोटियाँ,
युगों युगों से,
वो बेल रही है रोटियाँ।
■
सुषमा व्यास ‘राजनिधि’
इन्दौर, मध्यप्रदेश
परिचय-
नाम- सुषमा व्यास ‘राजनिधि’
पति- डाॅ. अरविंद व्यास
शिक्षा- स्नातकोत्तर (एम.ए.) हिन्दी साहित्य
तीन संग्रह प्रकाशित-
- कहानी संग्रह- तीसरे क़दम की आहट (संस्मय प्रकाशन)
- काव्य संग्रह- इक दिया देहरी पर ( संस्मय प्रकाशन)
- आध्यात्मिक आलेख संग्रह- परमानंदम (संस्मय प्रकाशन)
सम्मान एवं उपलब्धियाँ-
- कहानी संग्रह तीसरे क़दम की आहट इंग्लिश न्यूज़ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय सम्मान।
- मातृभाषा संस्थान द्वारा भाषा सारथी सम्मान।
- काव्य संग्रह(इक दीया देहरी पर) संस्मय प्रकाशन द्वारा सम्मानित।
- इंडिया नेटबुक्स एवं बीपीएल फ़ाउंडेशन दिल्ली द्वारा अनुस्वार रत्न सम्मान।
- व्यंग्य रत्न सम्मान नवीन क़दम समाचार पत्र द्वारा रामकृष्ण राठौर पुरस्कार से सम्मानित।
- अखंड संडे द्वारा साहित्य सेवी सम्मान।
- महादेवी वर्मा सम्मान से सम्मानित।
अन्य उपलब्धियाँ-
- बतौर मोटिवेशनल स्पीकर कार्यरत।
- इंदौर लिट् फेस्ट में बतौर स्पीकर, चर्चाकार।
- लिट् चौक, इंदौर में बतौर निर्णायक।
- अब तक 20 साझा संग्रह में कहानी। लघुकथा, आलेख व व्यंग्य, समीक्षा प्रकाशित 5. एक कुशल मंच संचालक के तौर पर अनेक साहित्यिक मंचों पर प्रस्तुति।
सदस्य्ता
आजीवन सदस्य—
मातृभाषा उन्नयन संस्थान, भारत
विश्व मैत्री मंच, भोपाल
सदस्य–
क्षितिज साहित्य मंच
विचार प्रवाह साहित्य मंच(उपाध्यक्ष)