पुस्तक समीक्षा

◆ डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान, भारत
पुस्तक- अन्वीक्षण
(लघुकथा संबंधी समीक्षाएँ, आलेख, पत्र)
लेखक- संतोष सुपेकर
मूल्य- 300/-
प्रकाशन- अक्षरवार्ता पब्लिकेशंस, उज्जैन
एक ऐसी विधा जो अपने अस्तित्व पर प्रतिदिन हमले झेलती है, कोई लघु कहानी या लघु व्यंग्य दर्शाता है, कोई कहानी का छोटा रूप कह देता है, ऐसे में उस विधा की विवेचना और उसमें लिखी विभिन्न रचनाकारों की किताबों की समीक्षा के माध्यम से विधा को परिष्कृत करने का कार्य विद्वान लेखक संतोष सुपेकर जी ने किया है।
डॉ. उमेश महादोषी जी के कथन, ‘समीक्षा एक व्यापक विषय है, कोई भी समीक्षा पूर्ण नहीं हो सकती। समीक्षा रेड लाइट की तरह रचनाकार को ठहरकर थोड़ा सोचने का समय देती है’, से आरम्भ यह यात्रा निश्चित ही लघुकथा के स्थायी भविष्य की नींव में समीक्षा के अवदान को रेखांकित करती है। पुरोवाक् में लेखक ने समीक्षा को कृति के प्रति आग्रही बनाने वाला और पाठकों को कृति के क़रीब ले जाने वाला बताया है। निश्चित रूप से वर्तमान दौर आलोचना से अधिक समालोचना का है। जिस तरह रिचर्ड्स ने समालोचना को कला न मानकर शास्त्र कहा है, वह सत्य भी है। जिस तरह आजकल के लेखकों में उतावलापन देखने को मिल रहा है, यह न केवल लेखकीय विधा के लिए बल्कि समाज के लिए भी घातक है। आज का लेखक सुबह दूध पीता है और शाम तक अपनी बॉडी देखता है कि कितनी बढ़ गई यानी सुबह विचार आएगा और दोपहर तक लिखकर शाम या अगले दिन तक छपने और सम्मानित होने की सूचना साझा करना चाहता है जबकि रचना का पकना पूरी रचनाप्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण अंग है।
लेखक ने लघुकथा की 26 कृतियों की समीक्षाएँ कीं और एक लघुकथा विधा पर केंद्रित अख़बार की समीक्षा भी शामिल है। 7 आलेख और 10 पत्रों के साथ 13 उन पुस्तकों की जानकारी भी शामिल की गई है, जो लघुकथा विमर्श पर महत्त्वपूर्ण है। साथ ही, शोधार्थियों के लिए अत्यावश्यक भी है।
इन समीक्षाओं को पढ़ने मात्र से लघुकथा की उन महत्त्वपूर्ण कृतियों की और उसके कृतिकारों के व्यक्तित्व, कृतित्व और रचनाधर्मिता का समग्र अध्ययन करने का लाभ मिला। डॉ. अशोक भटिया के संपादन में विक्रम सोनी का लघुकथा साहित्य ‘इक सदी की उम्र’ की समीक्षा ने समकालीन लघुकथा की कई विसंगतियों पर ध्यानाकर्षण भी किया और कृति के 171 पृष्ठों में समाहित महनीय लघुकथाकारों के आलेख व टिप्पणियों को भी दर्शाया है।
इसी के साथ, सुरेश शर्मा जी की कृति ‘अंधे बहरे लोग’, अशोक भाटिया जी के संपादन में निकली ‘सवाल दर सवाल (रमेश बत्तरा का लघुकथा साहित्य)’, मधुदीप जी व डॉ. बलराम अग्रवाल जी के संपादन में निकले ‘पड़ाव और पड़ताल खंड 1 और 2 (2014) शामिल है। लघुकथा विधा की सार्वभौमिक स्थापना और उसके साहित्य, विधान, रचनाधर्मिता इत्यादि के लिए सदैव सक्रिय रहने वाले मधुदीप जी का अवदान तो सदा-सदा ही रेखांकित होता रहेगा, यह कार्य लेखक सुपेकर जी ने भी बख़ूबी किया है।
इसके साथ डॉ. वसुधा गाडगिल की कृति ‘साझा मन’, सदाशिव कौतुक की किताब ‘संकल्प और सपने’, डॉ. पुरुषोत्तम दुबे की पुस्तक ‘लघुकथा: रचना पद्धति और समीक्षा’ की जानकारी सम्मिलित है। निःसंदेह समीक्षक ने जिस बारीकी से पुस्तकों का अध्ययन किया है और उन समीक्षाओं को लिखा है, यह कालजयी कार्य भी है। इस समय बेबाक़ी से लिखकर रचनाकारों को उनकी ग़लतियाँ बताने वाले कम रह गए हैं, जिस तरह आज का रचनाकार लघुकथाओं में लेखकीय प्रवेश की अधिकता कर रहा है, ‘मैं’ के बोध से बाहर निकल नहीं पा रहा, उस कारण रचनाकार की रचनाएँ कमज़ोर हो रही हैं, उस पर समीक्षक सुपेकर जी ने बख़ूबी फटकार भी लगाई है। एक समीक्षक का दायित्व होता है कि यदि उसे गेहूँ में कहीं ज़रा-सा भी कंकर नज़र आए तो वह समीक्षा के माध्यम से उस कंकर के प्रति ध्यानाकर्षण करे और उसे निकालने में सहायक बने। यही काम सुपेकर जी द्वारा मधुदीप जी की कृति ‘लघुकथा के समीक्षा बिंदु’, कुँवर प्रेमिल जी के ‘ककुंभ-2’, कृष्णा अग्निहोत्री जी के ‘कठे जाणां’, अंजू निगम के ‘सांझा दर्द’, ज्योति जैन जी के ‘निन्यानवे का फेर’, कोमल वाधवानी ‘प्रेरणा’ जी की कृति ‘रास्ते और भी हैं’, रामचंद धर्मदासानी की ‘रेतीली प्रतिध्वनि’ डॉ. वसुधा गाडगिल जी एवं अंतरा करवड़े जी की साझा कृति ‘धारा’, सुरेन्द्रकुमार अरोड़ा जी की ‘तीसरा पैग’, अनिल शुर आज़ाद जी के संपादन में निकली ‘मध्यप्रदेश की लघुकथाएँ’, सीमा जैन ‘भारत’ की ‘लम्हों की गाथा’, राममूरत राही जी की ‘इंजेक्शन’, अशोक जैन जी की कृति ‘ज़िंदा मैं’, राजेन्द्र नागर ‘निरंतर’ जी की ‘खूंटी पर लटका सच’, सतीश राठी जी की किताब ‘शिखर पर बैठकर’, मीरा जैन जी की कृति ‘भोर में भास्कर’ में बख़ूबी देखने को मिलता है। ऐसे कठिन दौर में जब समीक्षक को ज़रा-सी आलोचना करना भी दुश्मन मान लेने जैसा हो, ऐसे दौर में खरा लिखना सबसे कठिन काम है। इसके बाद सुपेकर जी ने जिन कृतियों की समीक्षाओं को शामिल किया, वे विधा के अस्तित्व, इतिहास और स्वर्णिम भविष्य के लिए बेहद उपयोगी पुस्तकों में हैं, जैसे भगीरथ जी की कृति ‘हिन्दी लघुकथा के सिद्धांत’, और डॉ. सत्यवीर मानव की कृति ‘हिन्दी लघुकथा: संवेदना और शिल्प’।
इस महत्त्वपूर्ण कृतियों की समीक्षाओं के बीच लेखक ने एक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग यानी समीक्षा भी जोड़ दी, जो कतई आवश्यक तो नहीं थी, कभी-कभी ऐसा फ़िलर पाठक के साथ छलावा लगता है।
पुस्तक में समीक्षाओं के साथ कुछ लघुकथा पर केन्द्रित कुछ आलेखों का संकलन भी सम्मिलित है, जिनमें लेखक की पसंद की कुछ लघुकथाओं का ज़िक्र भी है। साथ ही, एक बेहद आवश्यक और महत्त्वपूर्ण आलेख ‘लघुकथा का मंचीय पाठ: कुछ तथ्य’ जोड़ा है, जो निःसंदेह हर लघुकथाकार को पढ़ना और समझना चाहिए। आज के रीलजीवी दौर में लघुकथाओं का अस्तित्व रील और मंच बचा सकते हैं इसलिए इस दिशा में भी काम करने की आवश्यकता है।
इसके उपरांत ‘आपदाकाल और लघुकथा’, ‘संवेदना की सृष्टिभूमि लघुकथा’, ‘लघुकथा में भाषाई सौन्दर्य’ के साथ-साथ ‘लघुकथा में उज्जैन’ जैसे शोधात्मक आलेखों का संग्रह है। साथ ही, वैश्विक परिवेश और हिन्दी लघुकथा’ के माध्यम से लेखक ने सामयिक इतिहास को दर्शाने के प्रयास किया है, जो अत्यंत आवश्यक है।
पुस्तक कुल मिलाकर यहीं पर समाप्त हो गई है, किन्तु लेखक ने स्वयं लिखे कुछ पत्रों को भी जोड़ा है, जो लेखक के अनुसार-‘भविष्य में जिनके गुम हो जाने का भय था’, यदि ऐसे पत्रों को अन्य माध्यम से संरक्षित किया होता तो अधिक उपयुक्त होता, क्योंकि इन पत्रों से लघुकथा विधा पर कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता।
कुल मिलाकर पुस्तक ‘अन्वीक्षण’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण और लघुकथा की समीक्षा करने वालों के लिए रेडी रेकनर का काम करेगी। कुछ एक जगह भाषाई त्रुटियाँ या कहें टंकण त्रुटियाँ हो गई हैं, उसके अलावा सामान्य प्रकाशित लगभग 2 रुपए प्रति पृष्ठ की क़ीमत में यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी है। वर्तमान और भविष्य में भी लघुकथा विधा पर कार्य करने वाले और लिखने वालों के लिए दस्तावेज़ है। संतोष सुपेकर जी को अशेष बधाई के साथ।
(समीक्षक मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के साथ-साथ संस्थान के माध्यम से प्रतिवर्ष ‘लघुकथा मंथन’ भी आयोजित करते हैं।)