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खोज रहा जग कौतुक से ,
दिन रात सदा पर पा न सका है।
मंदिर मस्जिद शीश झुका,
कर ईश खुदा तक जा न
सका है।
लोभ बसा उर में गहरा,
इक प्रेम सिवा सब साथ लिए है।
गूढ़ बना मति मूढ़ रहा,
उपदेश सुना जग माथ लिए है।।
प्रीति नहीं मन से मन की,
तन केवल मानव मोह पगा है।
नेह बिना दुनिया छलती,
छ्ल सोंच रहा जग कौन सगा है।
सूख गए उर-सागर ज्यौं,
नद ताल दिवाकर तेज लगा है।
देख दशा अपने जग की,
भगवान यहाँ खुद आज ठगा है।।
———–#शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर
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