एक बात कहूँ जानेमन ? तुम बहुत बदसूरत हो

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एक बात कहूँ जानेमन ? तुम बहुत बदसूरत हो एकदम आत्मा के भीतर तक ! -रवीश के नाम खुला ख़त !

यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है, मातृभाषा.कॉम का नहीं।

 

अच्छा सुनो न !

तुम्हीं ने बताया था न जानेमन कि स्वतंत्रता हमारा संवैधानिक हक़ है  ?   मैंने मान भी तो लिया था !

मैंने स्वतंत्र होकर बिल्कुल खुले मन से तुम्हें जाँचा-परखा , मैंने पाया कि तुम न जानेमन बस मरदूद हो …… मैंने पाया कि तुम खुद से लड़ रहे हो…. अपने दुश्मन खुद बना कर उनसे लड़ना तुम्हारी पहली मुहब्बत है…. अरे मैं ! मैं तो तुम्हारे दायरे में कभी था ही नहीं ! ये मेरा प्यार तुमसे एकतरफा जो था !

सुनो न जानेमन ! तुमसे शिकायतें हजार हैं ,  वक़्त कम है !  मैं जानता हूँ तुम्हारे कानों में पड़े हुए मुलायम से रुई के फाहे, जिन्हें तुम मुझे कभी दिखाते नहीं वो तुम्हें गुदगुदाते हैं | तुम न अपनी-अपनी सुनाने के आदी हो, मुझे क्यों सुनोगे ?

जानेमन ! ये मुल्क ताज़ी हवा में साँस लेना चाहता था !  ये मुल्क….. हाँ बिल्कुल यही मुल्क ,  बदलने को तैयार था !  वह चाहता था कि काश ! कोई तो इसे बदले….  वह चाहता था पुराने दिनों में लौटना जब यहाँ इतनी लड़ाइयां नहीं थीं…… जब इतना विद्वेष नहीं था

जानेमन ! तुम्हारी हक़ीक़त मैंने कोशिश की एक राज़ ही रहे…. न उगलूं तुम्हारे बारे में कुछ….. लेकिन बेवफाई की भी हद होती है न ?

तुम्हीं बताओ होती है कि नहीं ? यह हद तुमने पार न की होती तो मैं भी तुम्हारा आशिक़ रहता ?  तुम्हें याद भी तो न होगा कि तुम अपनी ख्यालों की दुनिया में कुछ यूँ मशरूफ थे कि मुझे दूर जाता न पा सके !  हमारी मुहब्बत में दरार उस दिन से पड़ी जब तुमने अपनी मुहब्बत को किसी को बेच दिया !  वो कोई और भी कोई और नहीं था …. वो कोई और तुम्हारी गिरी हुई लिजलिजी सी आत्मा थी…. वही आत्मा जो झुर्रियों से बेसाख्ता बुड्ढी हो चली थी, पोपले गाल, क्षीण आँखें सब था उस बदसूरत सी शक्ल में. रंग-रोगन तुम्हारा बेहद चटख था और उस बदसूरती को मैंने उस दिन देख लिया था.

जानेमन !

जानते हो…तुम्हारा यूँ कहना के मैं उल्लू हूँ जो इस मुल्क को प्यार करता हूँ, इसे सबसे ऊपर रखता हूँ, इसके लिए कुछ करना चाहता हूँ, मुझे बिल्कुल भी अच्छा न लगा था…..आखिर तुम्हारे मुहब्बत की पहली शर्त ही यही थी कि मैं तुम्हें ही सच मानूँ…मैंने चाहा, भरोसा करो मैंने खूब चाहा, लेकिन मुझे कोई ऐसा वाज़िब कारण न मिला कि अपनी पाक मुहब्बत का मैं तुम्हें हक़दार बनाऊं खासकर तब जब मैंने तुम्हारी वो बदसूरत  मनहूस शक्ल देख ली थी !

हमारे रास्ते अलग हुए थे  तुमने बदले का मन बना लिया ! मैं भोला-भाला आदमी नियम-कायदे में रहना चाहता था ! मुझे मंज़ूर था कि मेरे पास बोलने की असीमित आज़ादी हो न हो, लेकिन मेरे पास कम से कम काम तो होगा !

मैं खुश था कि कम से कम मुझे इतनी मोहलत तो रहेगी ही कि मैं अपने मंदिर जा सकूँ, खाना खा सकूँ, पढ़ सकूँ, लिख सकूँ !  मुझे कभी भी किसी को गरियाने की आज़ादी न चाहिए थी… मेरी दुनिया में गलतियों की माफ़ी थी, तुम्हारी दुनिया में सज़ाएँ थीं-  अपने चहेतों के लिए अलग और मेरे चहेतों के लिए अलग !

लेकिन ! तुम्हारी दुनिया बदले की दुनिया थी !  मैंने तुम्हें छोड़ा क्या तुम तो बदले पर गए. मेरा क्या कुछ तो मज़ाक नहीं बनाया. जिसजिस को मैंने चाहा था, मेरी मान्यताएं, मेरे संस्कार,मेरा मजहब और मेरे जैसे लोग उन सबको तुमने नीचा दिखाना शुरु कर दिया…..बताओ तो मैं और कितना नीचे झुकता ? मुझे टूटना भी गंवारा था….  सो मैंने तुम्हारा प्रतिकार किया

यकीं रखो बस ये यहीं तक की लड़ाई थी ! क्योंकि हर वक़्त मैं तुम्हारा गुलाम नहीं रहूंगा…. मेरे लोग, मेरी तरह के लोग जो आशावादी हैं न जानेमन उनके लिए सच में बागों में बहार है !  सच में उनके लिए यह मुल्क गुलज़ार है ! तुम चाहते हो न मुझे चिढ़ाना, तो सोच लो कि मैं भी आर-पार के मूड में हूँ इस बार !!  इसबार मैं किसी को भी तुम्हें माफ़ी न देने दूंगा…अपने लोगों को भी नहीं !!

एक बात कहूँ जानेमन ?

तुम बहुत बदसूरत हो एकदम आत्मा के भीतर तक

 

-उजबक देहाती विकामी

उजबक देहाती विकामी

असल नाम से बेख़बर, उत्तरप्रदेश का रंग और कटाक्ष सहित लेखन के धुरंधर बल्लेबाज …

तंज़ का जवाब नहीं 

साभार: ujbakdehati.wordpress.com

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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