
मैं त्योहार मुझे पैसों से क्या?
खुशियों से नाता रखता हूँ।
बिन खुशियों के कभी-कभी,
ढोंगी बन ढोंग दिखाता हूँ।।
रिश्ता तो सभी धर्मों से है,
रिश्तेदार महज़ बदले देखा।
बिन प्यादे का लोटा बनकर,
कइयों को ज्ञान बांटते देखा।।
सच्चाई से दूर खड़ा,
धर्मों में बंट रह जाता हूँ।
धन के काल कोठरी में मैं,
अनबोलता सा हो जाता हूँ।।
हर दिन त्योहार झोपड़ी में,
हँसी के ठहाके लगाता हूँ।
क़ायम मुस्कान उस दिन भी,
जिस दिन भूखा सो जाता हूँ।।
अमीरी के जर्जर महलों मे,
असहाय, असहज हो जाता हूँ।
बाह्य दिखावे के चक्कर में,
हँसने का आदी हो जाता हूँ।।
रईसी कम्बल में अक्सर
बिन नींद सुलाया जाता है।
उस नींद से दूरी बढ़ जाती
बिन बिस्तर जो आ जाती है।
ज़हीर अली सिद्दीक़ी