‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के तत्वावधान में दिनांक 10 अक्तूबर, को सायं 4.15 बजे से ‘हिंदी, इसकी बोलियां और अष्टम अनुसूची’ विषय पर वैश्विक ई-संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के निदेशक डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’, वैश्विक हिंदी सम्मेलन की संयोजक डॉ. सुस्मिता भट्टाचार्य, वरिष्ठ पत्रकार और भारतीय भाषा चिंतक श्री राहुल देव, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष श्री अनिल शर्मा ‘जोशी’, हिंदी बचाओ मंच के संयोजक प्रो. अमरनाथ, हिंदी विभागाध्यक्ष, मुंबई विश्वविद्यालय के प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय, सिडबी के उपमहाप्रबंधक एवं लेखक डॉ. आर.वी. सिंह, हिंदी विभाग, पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय की प्रो. मंगला रानी, वरिष्ठ पत्रकार और भाषा सेवी श्री विजय कुमार जैन तथा डॉ. वरुण कुमार, निदेशक रेलवे बोर्ड ने अपने विचारों से उपस्थित जनों का ज्ञानवर्धन किया।
सर्वप्रथम वैश्विक हिंदी सम्मेलन की संयोजक डॉ. सुस्मिता भट्टाचार्य ने कार्यक्रम में उपस्थित वक्ताओं और श्रोताओं का शब्द पुष्पों से स्वागत किया। तत्पश्चात मंच संचालन करते हुए वैश्विक हिंदी सम्मेलन के निदेशक डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’ ने वैश्विक ई-संगोष्ठी का विषय प्रवर्तन करते हुए ने बताया कि हिंदी क्षेत्र की बोलियों को संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल करवाने के प्रमुख कारण नेताओं की क्षेत्र विशेष के लोगों को बोली-भाषा के नाम पर वोट बैंक का ध्रुवीकरण और अलग राज्यों की माँग। हिंदी की बोलियों को अष्टम अनुसूची में आ जाने पर सिविल सेवा की परीक्षाओं में चयन में का सरल रास्ता बनाना और अकादमियों व शिक्षण संस्थानों और भाषा आयोग आदि के गठन के चलते पदों की अपेक्षा तथा साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की अपेक्षा। डॉ. गुप्ता ने कहा कि हिंदी तथा अऩ्य भारतीय भाषाओं की बोलियों व उपबोलियों के श्रेष्ठ साहित्य को साहित्य अकादमी पुरस्कारों से वंचित रखना निश्चय ही अन्यायपूर्ण है। इस पर डॉ. गुप्ता ने सुझाव दिया कि साहित्य अकादमी पुरस्कारों का आधार अष्टम अनुसूची, जनसंख्या आदि न हो कर केवल साहित्य की गुणवत्ता होनी चाहिए फिर वे देश की किसी भा भाषा, बोली या उपबोली में क्यों न हों। उन्होंने अष्टम अनुसूची की भाषाओं और धार्मिक विषयों के आधार पर सिविल सेवा परीक्षा में सफलता पाने के चोर दरवाजों पर लगाम लगाने की बात भी कही ताकि किसी के साथ भी अन्याय न हो और प्रतिभाओं का ही चयन हो सके तथा इसके चलते बोलियों को अष्टम अनुसूची में शामिल करवाने की होड़ बंद हो। डॉ. गुप्ता ने संस्कृति देश-प्रदेश की संस्कृति की रक्षा के लिए बोलियों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुए बोलियों और इनके साहित्य व लोक गीत –संगीत को बचाने व बढ़ाने के लिए संघ सरकार के सहयोग से राज्य सरकारों द्वारा सुनिश्चित प्रयास करने को भी अत्यंत आवश्यक बताया। उनका कहना था कि यदि हिंदी क्षेत्र की बोलियों को अष्टम अनुसूची में शामिल किया गया तो हिंदी किसी जिले की भी भाषा न रहेगी और फिर विघटन की यह प्रक्रिया अन्य भारतीय भाषाओं में प्ररंभ हो जाएगी तब पूरे देश पर अंग्रेजी का एकछत्र राज स्वत: स्थापित हो जाएगा।
मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय, जो अवधी भाषी हैं और जो हिंदी को बचाने के लिए संघर्षरत रहे हैं, उन्होंने कहा कि देश में लगातार गुपचुप अंग्रेजी थोपी जा रही है लेकिन कोई विरोध नहीं करता। लेकिन जैसे ही हिंदी की बात आती है विरोध शुरु कर देते हैं। आज संघ सरकार की राजभाषा हिंदी, देश के बहुसंख्यकों की भाषा हिंदी, देश की वैश्विक पहचान हिंदी, अंग्रेजी के साथ-साथ देश में कई मोर्चों पर संकट का सामना कर रही है। उन्होंने जोर दे कर कहा कि सभी चाहते हैं कि बोलियों का संरक्षण हो, उनका संवर्धन हो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है । लेकिन अष्टम अनुसूची में शामिल होने की जिद्द करके हिंदी को कमजोर न करें । कुछ ताकतें बोलियों को हिंदी के समक्ष खड़ा कर रही हैं, देशहित में बोलियों को कुर्बानी देनी पड़े तो संकोच नहीं करना चाहिए, इससे दोनों का फायदा होगा क्योंकि बोलियाँ जब हिंदी से अलग होंगी तो वैमनस्य का भाव लेकर उभरेंगी। देशवासियों को आपसी विवाद के बजाए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने की ओर सोचना चाहिए, जिसके लिए सभी को सहयोग करना चाहिए। हिंदी परिवार का बँटवारा होने से बोलियाँ विश्व की दूसरी ताकतवर भाषाओं अंग्रेजी, मंदारिन इत्यादि का सामना नहीं कर पाएगी। उनका कहना था कि राष्ट्रहित में छोटे हित को छोड़ना पड़े तो यह उचित माना जाता है और हमें भी ऐसा ही करना चाहिए।
सिडबी के उपमहाप्रबंधक एवं लेखक, भोजपुरी भाषी डॉ. आर.वी. सिंह, ने कहा कि अष्टम अनुसूची में हिंदी की बोलियाँ ही नहीं अन्य भाषाओं की बोलियाँ भी अपने को शामिल करने की माँग करेंगी, यह अंतहीन माँग कहीं खत्म होते नहीं दिखती। वह दिन दूर नहीं जब अंग्रेजी को भी आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात होगी। अतः अब नई बोलियों को इस सूची में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। हिन्दी का निर्माण इन तथाकथित बोलियों ने किया है। संस्कृत से तो उसने कुछ शब्द मात्र लिए। हिन्दी का विकास इस प्रकार किया जाए कि वह भारत की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन सके। उन्होंने कहा कि हिन्दी की ‘ओनरशिप’ बहुत कम है। हिन्दी के कितने ही शब्द लुप्त हो चले हैं। इस पर भी शोध होना चाहिए।
पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना की हिंदी विभाग की प्रो. मंगला रानी ने कहा कि हमारे इतिहास में कई रचनाकारों ने हिंदी खड़ी बोली में उत्कृष्ट रचनाएं लिखीं, लेकिन कोई विरोध नहीं हुआ। लेकिन आज स्वतंत्र होने के बाद भी हम हिंदी से लड़ रहे हैं। हिंदी हैं तो बोलियों की भी पहचान है। आज की गंभीर चिंता है कि लाभ-लोभ के लिए बोलियों के कुछ लोगों द्वारा संविधान की अष्टम अनुसूची में पहुँचने की अंधी दौड़। उन्होंने कहा कि हिंदी की जो बोलियाँ अष्टम अनुसूची में शामिल हो गई हैं, उनका हिंदी के प्रति व्यवहार अब अत्यधिक आक्रमक दिखाई देता है। देश में इसके प्रति जागरूकता लानी ही होगी। हिंदी ही हमारी पहचान है, राष्ट्र की रीढ़ है। आपसी समझ से हिंदी के प्रति हितकारी निर्णय हों।
मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार और भाषा सेवी, श्री विजय कुमार जैन, जो एक समय राजस्थानी को अष्टम अनुसूची में शामिल करवाने के लिए आन्दोलनरत रहे हैं, उनका कहा कि हमें बोली भाषा के नाम पर संघर्ष करने के बजाए हिंदी को सशक्त बनाने के लिए, इसे राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास करने चाहिए। हमारे देश को भारत के नाम से ही जाना जाए न कि इंडिया के नाम से। उन्होंने कहा, हमारा प्रयास है, ‘देश में सबसे पहले मातृभाषा, फिर राष्ट्रभाषा।’
केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष श्री अनिल शर्मा ‘जोशी’ ने कहा कि हमें देश में भाषाई संवेदना का ध्यान रखना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनने की दिशा में बढ़ें लेकिन देश में भी इसका विरोध न हो इसका उपाय करना होगा। जनगणना के समय तो हिंदी की इन सहभाषाओं को, हिंदी को अपनी भाषा मानकर दर्ज कराना चाहिए । घर में हम चाहे जो भी बोलियाँ बोलते हों लेकिन हमें हिंदी को स्वीकारना चाहिए ताकि वैश्विक स्तर पर हमारे देश को एक भाषाई पहचान मिल सके। उनका कहना था कि भाषा और बोलियों के बीच कटुताओं के स्थान पर समरसता का रास्ता निकालने की महती आवश्यकता है। यदि अपने ही देश में हिंदी की शक्ति का क्षय होता रहेगा तो विश्व स्तर पर इसे कैसे सम्मान व उचित स्थान मिल सकेगा। मिलें, बैठें, चर्चा करें, एक-दूसरे की बात को सुनते हुए कुछ निष्कर्ष पर पहुँचे। जनगणना के समय प्रपत्र में ऐसे उपबंध करें कि राष्ट्र स्तर पर हिंदी को सम्मान मिल सके।
‘प्रवासी संसार’ के संपादक और हिंदी-सेनानी श्री राकेश पांडेय ने कहा कि जनगणना के समय लिए गए भाषाई आंकड़ों का बहुत महत्व होता है । क्योंकि इसी आधार पर नीतियाँ बनती हैं। भाषाओं के लिए भविष्य में क्या करना है, क्या नहीं करना है, इस बात पर विचार इसी आधार पर होता है। हिंदी की बोलियों को अलग करके जनगणना करने से सभी हिंदी की बोलियों को तथा हिंदी को भी नुकसान हुआ है। उन्होंने बोलियों के दावेदारों द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों की तथ्यात्मक सच्चाई प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारत में और मॉरीशस में जो आँकड़े बताए जा रहे हैं वे वास्तविकता से काफी दूर हैं। उन्होंने कहा इस संबंध में विख्यात आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे तमाम प्रख्यात विद्वानों के विचारों को जानने और समझने की आवश्यकता है।
वरिष्ठ पत्रकार और भारतीय भाषा चिंतक श्री राहुल देव ने इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि बोलियाँ शब्द का प्रयोग न कर इन्हें सहभाषा कहा जाना ज्यादा उचित होगा। सब भाषाएँ एक जैसी क्षमताओं से युक्त हैं। हिंदी की सहभाषाएं हिंदी की जननियाँ हैं, मातृभाषाएँ है। हर प्रदेश में दूसरे भाषाभाषी भी होते हैं, जनगणना में इनका भी जिक्र किया जाना चाहिए। ज्यादातर भारतीय बहुभाषी होते हैं। देश के हिंदी भाषी परिवार, विद्वान, चिंतक, भाषाविद् अगर हिंदी का भला चाहते हैं तो उऩ्हें भावनाओं में बहने के बजाय तथ्यों पर ध्यान देने और तथ्यों के आधार पर बात करने तथा की जरूरत है। उन्होंने कहा कि यदि हिंदी में से बोलियों को निकाल दिया जाए तो हिंदी में क्या बचेगा। उन्होंने बताया कि1967 में अंतिम बार और गंभीर चिंतन भाषाओं के बारे में देखने में आया था उसके बाद ऐसा चिंतन, भाषा विमर्श देखने में नहीं आया। उसमें जो बातें कही गर् उन पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। अतः आज के समय में इसकी बहुत जरूरत है कि देश के सभी कोने-कोने से भाषा चिंतकों, भाषाविदों, विद्वानों, शिक्षाशास्त्रियों, राज्यों की सरकारों को मिलकर ऐसे विस्तृत आयोजन/बैठक/संगोष्ठी आदि में विचार-विमर्श करना चाहिए जहाँ सब खुलकर अपनी बातों को एक-दूसरे के सामने रखें। होली और भाषावालों के बीच संवाद से एक-दूसरे की भावनाओं, तकलीफों को समझें तथा भाषाओं की इस आपसी खींचतान का सुखद हल निकालें। यह जो अनुसूची है इसके स्थान पर नई अनुसूची लाने के बारे में भी विचार किया जा सकता है ताकि इसमें शामिल होने की जो होड़ मची हुई है, उस प्रवृत्ति पर लगाम लग सके।
इस अवसर पर डॉ. वरुण कुमार, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल विभाग ने टिप्पणी करते हुए कहा कि भाषा और बोली वालों के बीच संवाद कैसे होगा ? मैं ङी भोजपरी वाला हूँ और मैं ही हिंदी वाला, मैं ही अवधी भाषी हूँ और मैं ही हिंदी भाषी, हिंदी की सभी बोलियों के साथ यही स्थिति है। इसलिए संवाद तो खुद से ही करने की आवश्यकता है। इस विषय पर जागरूकता फैलाई जानी चाहिए ।
हिंदी बचाओ मंच के संयोजक और कोलकाता विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त हिंदी विभागाध्यक्ष, प्रो. अमरनाथ, ने इस अवसर पर कहा कि हिंदी की चिंदी चिंदी न हो, इससे न तो हिंदी बचेगी और न ही इसकी बोलियाँ। उनका कहना था कि आज हिंदी को तोड़ने की साजिशें हो रही हैं। सभी को सोचना होगा तभी हमारा देश देश रहेगा अन्यथा बहुत नुकसान हो रहा है और होगा। विद्वान लोग कृपया इस पर गंभीरता से विचार करें। राष्ट्रीय स्तर की बात सोचें कृपया छोटे छोटे टुकड़ों में न बंटे। हिंदी का अहित होगा तो देश का भी अहित होगा। उन्होंने कहा कि बोलियों को जनपदीय भाषाएं कहें तो उचित होगा। उन्हें भी सम्मान, संरक्षण, संवर्धन मिलना चाहिए लेकिन इनको भी अष्टम अनुसूची का मोह छोड़ना चाहिए और देश हित में सोचना चाहिए क्योंकि हिंदी को सम्मान इसकी सहभाषाओं या जनपदीय भाषाओं का भी सम्मान है। हमें हिंदी को समृद्ध करने की दिशा में सार्थक प्रयास करने चाहिए, दिशा से भटकना नहीं चाहिए। उऩ्होंने हिंदी के प्रख्यात भाषा शास्त्री डॉ. रामविलास शर्मा, सुप्रसिद्ध आलोचक के विचारों और डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा भोजपुरी सम्मेलन के अध्यक्ष पद से बोलते हुए जो विचार रखे उन पर ध्यान दिए जाने की बात कही। उन्होंने हिंदी को सशक्त बनाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए न्याय व्यवस्था, शिक्षा व रोजगार आदि में उचित स्थान दिलवाने के लिए विशेष प्रयास किए जेने की आवश्यकता पर जोर दिया। प्रो. अमरनाथ ने इस ई-वैश्विक संगोष्ठी को एक संपूर्ण, सबसे सार्थक संगोष्ठी बताते हुए कहा कि उन्होंने इससे अच्छी संगोष्ठी नहीं देखी । इसके लिए उन्होंने वैश्विक हिंदी सम्मेलन के निदेशक डॉ. डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’ को बधाई दी।
कार्यक्रम के अंत में, वैश्विक हिंदी सम्मेलन के निदेशक डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’ ने कार्यक्रम की सफलता पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए सभी वक्ताओं तथा ई-संगोष्ठी में शामिल सभी महानुभावों को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। इस संगोष्ठी में गूगल मीट के अतिरिक्त यू ट्यब आदि पर देश विदेश के अनेक विद्वानों तथा भाषा-प्रेमियों ने भाग लिया ।
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई