लोग अब रिश्तों का,
अर्थ भूल गए है।
क्या होते है रिश्ते,
इन्हें समझने से क्या फायदा।
कितनी आत्मीयता होती थी,
भारतीयों के दिलों में।
अब तो एक दूसरे से,
आंखे मिलाने से डरते है।।
कौन किसी का क्या है,
ये सोचने का किसको वक्त है।
मैं मेरे बच्चे और बीबी साथ है,
अब यही हमारी दुनियाँ है।
इनके अलावा अब किसी को,
कुछ भी दिखता ही नही।
क्योंकि दुनियाँ सिमट गई है,
बस चार दीवार के अंदर तक।।
बड़ा ही विचित्र समय आ गया है,
जब इंसान ही इंसान से भाग रहा है।
कितना बड़ा आदमी ही क्यो न हो,
परन्तु उसकी सोच छोटी हो गई है।
न जिंदा में अब मतलब है,
न मृत्यु में उसे मतलब है।
मानो सबकी इंसानियत अब,
एक साथ मर चुकी है।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)