हमसफर बनके वो
हमसाया न बन सकीं
साथ रहकर वो
मुझे न समझ सकीं।
अब तो राहें है,जुदा-जुदा
जैसे, नदी के दो किनारे हो
राह देखते ऐसे जैसे, बे-सहारे हो
चाहकर भी एक दूसरे की
हो न सकीं
जैसे, बीच भँवर की मांझी हो
हमसफर बनके वो
हमसाया न बन सकीं
साथ रहकर वो
मुझे न समझ सकीं।
वर्षो की तपिस है तेरे अन्दर, छुपा हुआ
चाहकर भी वो मुझे न बता सकी
तेरे आस-पास रहते है, हमर्दद तेरे
वो हमदर्द ही बन गयी, दर्द तेरे
जान कर अनजान है
देखकर भी पहचान न सकीं
जैसे,अजनबियों सी पहचान हमारी हो
हमसफर बनके वो
हमसाया न बन सकीं
साथ रहकर वो
मुझे न समझ सकीं।
अपनो में बेगाने की तरह
जानता हूँ सूनसान है, दुनियाँ तेरी
फिर भी सामने न ला सकीं
स्वार्थ की मजबूरियाँ तेरी
हमसफर बनके वो
हमसाया न बन सकीं
साथ रहकर वो
मुझे न समझ सकीं।
“आशुतोष”
नाम। – आशुतोष कुमार
साहित्यक उपनाम – आशुतोष
जन्मतिथि – 30/101973
वर्तमान पता – 113/77बी
शास्त्रीनगर
पटना 23 बिहार
कार्यक्षेत्र – जाॅब
शिक्षा – ऑनर्स अर्थशास्त्र
मोबाइलव्हाट्स एप – 9852842667
प्रकाशन – नगण्य
सम्मान। – नगण्य
अन्य उलब्धि – कभ्प्यूटर आपरेटर
टीवी टेक्नीशियन
लेखन का उद्द्श्य – सामाजिक जागृति