‘कटोरे पर कटोरा’

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kapil shastri

आज सुबह-सवेरे शीतला सप्तमी पर रंजन जी बिना चाय पिए ही श्रीमती जी को लेकर मंदिर पहुँच चुके थे।गुजरी रात को ही स्पष्ट निर्देश मिल चुके थे कि,गैस मत जलाना।
महिलाऐं बासोरे और पूजन सामग्री की थाली लिए कतार में थीं और उनके पतिदेव मोबाइल पर बतियाते हुए आसपास ही मंडरा रहे थे। आज उनकी भूमिका सिर्फ अपनी अपनी पत्नियों को नारियल फोड़ के देने की थी,जिसकी व्यवस्था नज़दीक ही एक बलुआ पत्थर की फर्शी पर थी।
जहाँ अन्य पति तीन-चार प्रयास में सफल हो पा रहे थे,वहाँ रंजन जी ने एक ही प्रहार में टुकड़े-टुकड़े कर दिए और पानी कटोरी में निकालकर पत्नी को नारियल समेत सौंप दिया।
इसी दौरान एक सुन्दर नवविवाहिता उन्हें आशा भरी निगाह से निहार रही थी। शायद कुछ कहना चाह रही थी और फिर बड़े ही नाज़ों-अंदाज़ से कह ही दिया-‘सुनिए,क्या आप हमारा भी नारियल फोड़ देंगे?’ स्पष्ट था कि,पतिदेव साथ नहीं थे,उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और गौरवान्वित महसूस किया कि अन्य पुरुषों की अपेक्षा उसने उनका प्रदर्शन देख चयनित किया है। मन को शीतलता मिली। मामला धार्मिक है और सहायता का है,इसलिए श्रीमतीजी के कोपभाजन बनने का भी कोई खतरा नहीं है।
उन्होंने पूरी शक्ति से नारियल फर्शी पर दे मारा,जो उछलकर दूर जा गिरा,ये देखकर महिला मुँह दबाकर हंस पड़ी।उन्होंने झेंपकर फिर उसे उठाया और कसकर पकड़कर दे मारा। इस बार जमकर हाथ में झन्नाटा आया,जिसकी पीड़ा उन्होंने चेहरे तक नहीं आने दी।तीसरी बार पूँछ की तरफ से पकड़कर पटका,पर उसका बाल भी बांका न हुआ। इसी बीच कई दुबले-पतले पति भी सफल हो चुके थे।
महिला भी कतार में आगे खिसकती जा रही थी,इसलिए प्रदर्शन का दवाब बढ़ता जा रहा था। उन्होंने रणनीति बदली और एक बालू पत्थर उठाकर उस पर दे मारा,जिससे एक सुराख़ बन गया,पर पानी नहीं निकला। फिर दो-तीन और प्रहारों से सुराख़ बड़ा कर दिया और पिल पड़े उसके रेशे उतारने पर। सुराख़ में हाथ डालकर जरासंध की जांघ की तरह फाड़ डाला।
एक पहेली याद आई ‘कटोरे पे कटोरा,बेटा बाप से भी गोरा।’ आज बेटे का ही महत्त्व था, और उस तक पहुँचना लक्ष्य। बाप टूट चुका था,फट चुका था, पर बेटा अभी भी उससे चिपका हुआ था,जिसके टुकड़े-टुकड़े निकालकर उस महिला को सुपुर्द करने के बाद ही संतुष्टि मिली। इसी बीच पत्नी भी पूजा करके आ चुकी थी,उसने कहा-‘आप भी हाथ जोड़ कर माता से प्रार्थना कर लीजिए।’ उन्होंने आँख बंद करके कहा-‘हे माता मुझे आत्ममुग्धता से बचाना और किसी भी कार्य में असफल रहने पर भी मन में शीतलता बनी रहे,यही मनोकामना है।

                                                                       #कपिल शास्त्री

परिचय : 2004 से वर्तमान तक मेडिकल के व्यापारी कपिल शास्त्री भोपाल में बसे हुए हैं। आपका जन्म 1965 में  भोपाल में ही हुआ है। बीएससी और एमएससी(एप्लाइड जियोलॉजी) की शिक्षा हासिल कर चुके श्री शास्त्री लेखन विधा में लघुकथा का शौक रखते हैं। प्रकाशित कृतियों में लघुकथा संकलन ‘बूँद -बूँद सागर’ सहित ४ लघुकथाएँ-इन्द्रधनुष,ठेला, बंद,रक्षा,कवर हैं। द्वितीय लघुकथा भी प्रकाशित हो गया है। लघुकथा के रुप में आपकी अनेक रचनाएँ प्रकाशित होती हैं।

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