दो दिनों के अंतराल पर एक बंद और एक चक्का जाम आंदोलन। मेरे गृह प्रदेश
पश्चिम बंगाल में हाल में यह हुआ। चक्का जाम आंदोलन पहले हुआ और बंद एक
दिन बाद। बंद तो वैसे ही हुआ जैसा अमूमन राजनैतिक बंद हुआ करते हैं।
प्रदर्शनकारियों का बंद सफल होने का दावा और विरोधियों का बंद को पूरी
तरह से विफल बताना। दुकान – बाजारें बंद… सड़कों पर गिने – चुने वाहन।
कहीं – कहीं सरकारी वाहनों में तोड़फोड़ या रेलवे ट्रैक पर धरना आदि। बंद
से एक दिन पहले आदिवासियों का चक्का जाम आंदोलन और ज्यादा मारक था। मसला
गैर राजनैतिक होने से लोगों का ज्यादा ध्यान पहले घोषित चक्का जाम
आंदोलन की ओर नहीं गया। तय समय पर रेलवे ट्रैक पर धरना – प्रदर्शन शुरू
होने पर ट्रेनों के पहिए जाम होने लगे तो लोगों को यही लगा कि जल्द ही
मसला सुलझ जाएगा। लेकिन ट्रेनें जब घंटों रुकी की रुकी रही तो हजारों
फंसे यात्री और उनके परिजन परेशान हो उठे। शाम का अंधियारा घिरने तक मन
में फिर भी एक उम्मीद थी कि शाम होने तक प्रदर्शनकारी जरूर रेलवे लाइन से
हट जाएंगे और इसके बाद ट्रेनें धीमी गति से ही सही चलने लगेगी। लेकिन
लोगों का अनुमान गलत निकला। देर रात तक फंसी ट्रेनें जहां की तहां खड़ी
ही रही। रास्ते में बुरी तरह फंस चुके हजारों रेल यात्रियों पर तब
वज्रपात सा हुआ जब पता चला कि आंदोलनकारियों ने घोषणा कर दी है कि जब तक
सरकार उनकी मांगे मान नहीं लेती वे रेलवे ट्रैक से नहीं हटेंगे और वे
ट्रेनें रोके रखेंगे। इस बीच कुछ छोटे स्टेशनों में हिंसा , तोड़फोड़ और
आगजनी होने लगी। आंदोलनों में फंसी ट्रेनों की संख्या दो या चार नहीं
बल्कि तकरीबन दो सौ थी और पीड़ित यात्रियों की संख्या हजारों। रेलवे ,
पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि इस
परिस्थिति में वे क्या करें। आंदोलनकारियों की मांगें राज्य सरकार से
संबंधित थी, लेकिन प्रभावित राजमार्ग और रेलवे हो रही थी। रेलवे ट्रैक
के साथ सड़कों पर भी आंदोलन जारी था। लग रहा था मानो देश के तीन राज्य
पश्चिम बंगाल , झारखंड और ओड़िशा का बड़ा हिस्सा हाईजैक हो गया हो। कहीं
से राहत की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी। इस बीच एक बेहद दुखद सूचना
आई। बंद – हड़ताल के बावजूद अपने पैतृक शहर जाने की कोशिश में क्षेत्र के
युवा चिकित्सक की सड़क हादसे में मौत हो गई । चक्का जाम आंदोलन के चलते
चिकित्सक ने ट्रेन के बजाय एक गाड़ी हायर की और बेहद जरूरी परिस्थिति में
सड़क मार्ग से अपने शहर को निकले। बीच में उन्हें आशंका हुई कि उनकी
गाड़ी आंदोलन में फंस सकती है तो उन्होंने चालक को दूसरे रास्ते से चलने
को कहा। लेकिन कुछ दूर चलते ही उनकी कार हादसे का शिकार हो गई। इस बीच
अपडेट सूचनाएं पाने का एकमात्र जरिया क्षेत्रीय भाषाई न्यूज चैनल थे।
बताया जा रहा था िक छोटे – छोटे स्टेशनों में फंसी ट्रेनों में बड़ी
संख्या में स्कूली बच्चे भी शामिल हैं। जो शैक्षणिक भ्रमण पर निकले थे,
लेकिन रास्ते में फंस गए। कुछ बड़े स्टेशनों पर वे युवा अभ्यर्थी उबल रहे
थे जिन्हें नौकरी की परीक्षा के लिए जाना था। लेकिन ट्रेनें बंद होने से
उन्हें नौकरी वाले शहर तक पहुंच पाना असंभव प्रतीत हो रहा था । एक युवा
चीख – चीख कर कह रहा था …पांच साल के बाद ग्रुप डी की वेकेंसी निकली और
वे परीक्षा में शामिल ही नहीं पाएंगे। आखिर इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा।
सवाल कई थे लेकिन जवाब एक भी नहीं। पूरे 22 घंटे बाद रात के तीन बजे
आंदोलन समाप्त हुआ और रास्ते में फंसी ट्रेनों का आहिस्ता – आहिस्ता
रेंगना शुरू हुआ। भीषण चिंता व तनाव में मैने राष्ट्रीय चैनलों पर नजरें
दौड़ानी शुरू की। लेकिन किसी पर खबर तो दूर पट्टी तक नजर नहीं आई। किसी
पर जल प्रलय तो किसी पर उन राजनेताओं की गर्म बहस दिखाई जा रही थी,
जिन्हें अक्सर चैनलों पर देखा जाता है। मुझे लगा देश के तीन राज्य में
हजारों लोगों का आंदोलन से प्रभावित होना क्या नेशनल न्यूज की श्रेणी
में नहीं आता। फिर राष्ट्रीय समाचार का मापदंड क्या है। फिर सोचा मेरे
सोचने से क्या फर्क पड़ता है। यह कोई नई बात तो है नहीं। उधर
आंदोलनकारियों की भी अपनी पीड़ा थी। आदिवासियों की अपनी मातृभाषा ओलचिकी
में शिक्षा और स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति समेत कई मांगे थी। उनका
दर्द था कि मातृभाषा में शिक्षा की सुविधा नहीं होने से वे समाज में
लगातार पिछड़ते जा रहे हैं । वाकई सवाल कई थे लेकिन जवाब एक भी नहीं।
#तारकेश कुमार ओझा
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं | तारकेश कुमार ओझा का निवास भगवानपुर(खड़गपुर,जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है |