हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 के अन्तर्गत समलैंगिकता को कानूनी मान्यता प्रदान की, जो की सभ्य समाज के लिए एक असहज विषय है । हमारी भारतीय संस्कृति विश्व की आदर्श संस्कृतियों में मानी जाती है। भारतीय संस्कृति में जो आचरण मनुष्य के हितैषी है उन्हीं का समर्थन किया गया है और जो आचरण मानव के लिए हितकारी नहीं है उनका पूरी तरह निषेध किया है । हमारी संस्कृति नर और मादा के संयोग का ही समर्थन करती है और उसे ही नैतिक बताती है । नर से नर और मादा से मादा का संयोग प्राकृतिक रुप से कभी भी संभव नहीं है, यह अमानवीय कृत्य है । जो कि एक मानसिक बिमारी है । सुप्रीम कोर्ट न्याय के प्रति जितनी गंभीर उतना ही संस्कृति के सरक्षण के प्रति भी गंभीर होना जरुरी है।
पश्चिमी सभ्यता सदा से ही स्वच्छंदता की समर्थक रही है, पश्चिम में विवाह नाम की आदर्श व्यवस्था नहीं है और है भी तो बंधन कारक नहीं, स्वच्छन्द है,ऐसी स्थिती में अपनी यौन कुंठाओं की तृप्ति के लिए समलैंगिकता को बुरा नहीं माना जाता है । पर भारतीय संस्कृति अध्यात्म से सरोकार रखती है यहॉ यौन कुंठा को दबाने या तृप्त करने का सर्व श्रेष्ठ उपाय बताया गया है योग और ध्यान । जिनके बल पर कोई भी अपनी यौन उर्जा का सदुपयोग सप्त चक्र जागृत कर कर सकता है । इसलिए भारत जैसे देश में नैतिक पतन की पैरवी करता सुप्रीम कोर्ट का निर्देश आना हास्यास्पद तो है ही, भविष्य के लिए चिंता का विषय भी है ।
एक तरफ वर्तमान केंद्र सरकार के नुमाइंदे जो सत्ता में आने से पहले संस्कृति के रक्षक माने जाते थे, धर्म और संस्कृति के नाम पर आए दिन समाज में संघर्ष करते रहते थे, आज मौन है । देश के कुछ बड़े अख़बार और चैनल इसे समलैंगिकों का स्वतंत्रता दिवस बता कर दो, चार पेज की सामग्री छाप कर पुरी लड़ाई को बढ़ा चढ़ा कर बता रहे है जैसे, उनको भी इस आदेश के बाद ही स्वतंत्रता मिली हो । अपनी नैतिक जवाबदारी से दूर इस तरह के अख़बारों और चैनलों के मालिकों, संपादकों की बुद्धि पर दया आती है।
समाज में अनैतिक कर्म को बढ़ावा शायद ऐसे फैसलों और ख़बरों की ही देन है इसमें कोई शक नहीं, न्यायपालिका और पत्रकारिता अपने दायित्वों से भूलकर केवल ग्लैमर में रहना चाहती हो तो, न तो समाज का भला होगा और न ही देश का , समाज और देश दोनों का गर्त में जाना तय है ।
केन्द्र सरकार को चाहिए की धारा 377 में संशोधन से पहले बुद्धिजीवी वर्ग की महत्वपूर्ण राय पर भी विचार करे और माननीय सुप्रीम कोर्ट को पुन: विचार करने का निवेदन करे ।
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