दोस्तों, हमेशा दिलीप साहब के अभिनय की गहराई और ऊँचाईयों की जो परवाज़ रही है,उसको छूना हर भारतीय फिल्म कलाकार का आज भी सपना है,क्योंकि उनका आकलन आज भी बहुत कठिन है। फिर भी उन पर कुछ लिखने की गुस्ताखी कर रहा हूँ। 11 दिसम्बर 1922 को पेशावर में मुहम्मद युसूफ खान उर्फ़ दिलीप का जन्म हुआ। बंटवारे में उनके वालिद गुलाम सरवर आ गए। उनके पिता फ़ल बेचा करते थे और इसी तंगहाली के चलते आपने पूना के एक केंटीन में नौकरी कर ली थी। वहाँ इनकी मुलाक़ात देविका रानी से हुई और देविका ने पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ 1944 में दिलाई। दिलीप साहब सभ्य, सुशील,कुलीन होने के साथ साथ स्वनिर्मित मनुष्य भी थे,जो अपने किरदार को इतनी शिद्दत और लगन से करते थे कि,उस किरदार में खुद को झोंककर खुद को भुला देते थे। फिल्म ‘कोहिनूर’ में आपको सितार बजाना था तो,आपने यह दृश्य फिल्म के अंत में शूट किया और सितार बजाना सीखकर सितार बजाया था। इसमें उनकी उंगलियां ज़ख्मी हो गई थी,परंतु दृश्य सच्चाई और ईमानदारी से दिया। हर किरदार को पूरी विस्तॄता के साथ आत्मसात करते थे,और दुखांत किरदार में तो खुद को ऐसे ढाल के प्रस्तुतिकरण करते थे क़ि
जीवंतता के साथ असलियत का एहसास देता था। इसीलिए दुखांत किरदारों को सजीव कर प्रस्तुति के कारण आपको ‘ट्रेजेडी किंग’ का नाम दिया गया। दिलीप साहब स्वशासित अदाकार थे,जो किरदार को निभाने के साथ जिया करते थे। अभिनय की इसी शिद्दत और लगन के चलते फिल्म पूरी होने के बाद भी वह चरित्र से बाहर नहीं आ पाते थे और उन्हें मानसिक चिकित्सकों की ज़रुरत पड़ने लगी। उन्होंने कई बार किरदार से बाहर आने के लिए ऐसी मदद ली,और उन्हीं की सलाह पर हल्की-फुल्की हास्य फिल्में की। आपके अभिनय की सजीवता के साथ संवाद अदायगी में सप्तक और खरज़ यानी आवाज़ की ऊँचाई और निचले स्तर पर ले जाने की कला भी लाजवाब थी। दिलीप कुमार ने कुल जमा 54 फिल्मों में काम किया,क्योंकि वो काम और अभिनय की गुणवत्ता बनाए रखना चाहते थे। इसी के चलते उन्होंने कम काम करते हुए भी खुद को आला मुकाम पर पहुँचाया,लेकिन 54 में से जुगनू,आन,अंदाज़,दीदार,कोहिनूर, गंगा जमुना,राम-श्याम,नया दौर, गोपी,क्रांति,विधाता,कर्म और सौदागर फिल्म गोल्डन जुबली हिट रही। इनकी सिल्वर जुबली हिट की फेहरिस्त भी कम नहीं है,जिसमें शहीद,नदिया के पार,आरजू,जोगन, शबनम,बाबुल,दाग,देवदास,मधुमति, लीडर,पैगाम,आदमी और संघर्ष खास रही है।
दिलीप साहब ने नकारात्मक भूमिका भी की। फिल्म थी ‘फुटपाथ’ और ‘अमर’। एक नज़र उन फिल्मों पर भी होना चाहिए,जिन्हें दिलीप कुमार ने अपने नियमों और शर्तो के चलते ठुकराया। इसमें मुख्य-प्यासा,कागज़ के फूल,संगम,नया दिन-नई रात, लारेंस ऑफ़ सन्डेदिया और बैंक मैनेजर है। इनमें से एक फिल्म का जिक्र ज़रूरी है।’नया दिन-नई रात’ में किरदार एक ही था,जिसे सात अलग अलग भूमिकाओं का निर्वाहन करना था, तो आपने खुद निर्देशक को हरीभाई जरीवाला यानी संजीव कुमार का नाम सुझाया था। खुद ने फिल्म करने से मना किया और संजीव कुमार ने सातों किरदारों को केवल दिलीप साहब के उनके नाम तजवीज़ करने की बिना पर न केवल स्वीकार किया,वरन् बखूबी निभाया भी।
अब उनकी निजी ज़िन्दगी में भी थोड़ा झांक लेते हैं।सायरा बानो,नसीम बानो की बेटी थी।नसीम की खूबसूरती और अदाकारी फिल्म जगत में प्रसिद्ध थी। सायरा बानो कालेज के दिनों में दिलीप साहब के फोटो अपने रूम में लगाया करती थी। फिल्म ‘जंगली’ करने के बाद एक पार्टी में सायरा बानो, दिलीप जी से मिली और नसीम बानो ने परिचय करवाया। सायरा ने अपना हाथ आगे बढ़ाया कि, फिल्म जंगली हिट होने की बधाई दें,परन्तु दिलीप बिना हाथ मिलाए आगे बढ़ गए। तब सायरा ने अपनी माँ से दिलीप साहब के साथ फिल्म करने की अपनी बचपन की ख्वाइश को ज़ाहिर किया। दोनों की उम्र के फासले को देखते हुए यह मुमकिन नहीं लग रहा था, परन्तु नसीम बानो ने एक बार हिम्मत करके दिलीप साहब के सामने सायरा से शादी का प्रस्ताव रख दिया। इसे सायरा ने खुले दिल से मान लिया,
लेकिन दिलीप साहब उस वक्त 44 के और सायरा 22 साल की थी। दिलीप साहब को बच्चों से खास प्यार था, लेकिन एक मिथक कि, वो कभी पिता नहीं बन पाए। उन्होंने अपनी बायोग्राफी ‘सब स्टांस एन्ड द शेडो’ में इसका खुलासा किया है कि,सायरा गर्भवती हुई थी और 8 महीने का बच्चा कोख में था। इस समय सायरा हाई ब्लडप्रेशर से ग्रसित हो गई और मिस कैरेज़ हो गया,और उसके बाद वो माँ नही बन पाई।
खैर,1980 में आपने दूसरा निकाह किया अस्मा बी से। खूब अफवाहों का दौर गरम रहा कि, संतान की चाहत के चलते ये निकाह हुआ है लेकिन 1982 में यह निकाह तलाक पर आकर खत्म हो गया। एक फिल्म जो भारतीय सिने जगत की माइलस्टोन फिल्म थी ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के कई किस्से जनता तक पहुँचे,परन्तु हम फिल्म के पहले का एक अनसुना किस्सा सुनाते हैं। फिल्म में सलीम शहज़ादे के किरदार के लिए के.आसिफ कई स्थापित कलाकारों का परीक्षा ले चुके थे,लेकिन तलाश ख़तम हुई दिलीप कुमार पर आकर। दिलीप साहब को शहज़ादे की मानिंद बोलकर दिखाना था,जो आप पहली बार में कर गए और के.आसिफ यहीं थम गए। इसके बाद पूरे देश को अभिनय का सलीम शहज़ादा रुबरु हुआ। पृथ्वीराज कपूर उस काल के बड़े कलाकारों में शुमार होते थे,उनके सामने आपने अपने अभिनय का लोहा मनवा दिया। दिलीप कुमार ने एक गाना भी गाया जो सलिल चौधरी ने कम्पोज़ किया और लता उसमे सह गायिका थी। फिल्म ‘मुसाफिर’ में ‘लागी नहीं छूटे राम…’।
दिलीप कुमार ने कम फिल्मों में काम किया,परन्तु अपने अभिनय से जो परचम फहराया है,वो काबिले एहतराम होने के साथ उन्हें भारतीय चित्रपट का विश्वविद्यालय बनाता है।आज भारतीय चित्रपट का हर अदाकार उनकी तरह मुकाम हासिल करना चाहता है।
सन १९५४ में फिल्म फेयर अवार्ड्स शुरु हुए और ये केवल पांच श्रेणियों में होते थे,आज ३१ में होते हैं। पहला फिल्म फेयर अवार्ड लेने वाले अदाकार बने दिलीप जी फिल्म ‘दाग’ के लिए १९८० में शेरिफ ऑफ़ मुम्बई भी घोषित किए गए।
१९९१ में भारत सरकार ने आपको ‘पद्मभूषण’ दिया तो,१९९४ में भारत का चित्रपट का सबसे बड़ा दादा साहेब फाल्के सम्मान और २०१५ में पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है। साथ ही उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान ‘इम्तियाज़-ए- पाकिस्तान’से भी नवाजा जा चुका है।
एक अदाकार के लिए बिरला ही होगा कि,दोनों देशों से सम्मान मिला हो। भारतीय सिने जगत में आज तक कितने सितारा अदाकार आए,पर दिलीप कुमार के मुकाम तक पहुँचने के सपने संजोए ही रह गए। यह इनके अभिनय की उच्चता ही है कि,उम्दा अदाकार आज भी दिलीप कुमार को आदर्श मानकर अभिनय के इस भीष्म पितामह से सीखते रहते हैं।
#इदरीस खत्री
परिचय : इदरीस खत्री इंदौर के अभिनय जगत में 1993 से सतत रंगकर्म में सक्रिय हैं इसलिए किसी परिचय यही है कि,इन्होंने लगभग 130 नाटक और 1000 से ज्यादा शो में काम किया है। 11 बार राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व नाट्य निर्देशक के रूप में लगभग 35 कार्यशालाएं,10 लघु फिल्म और 3 हिन्दी फीचर फिल्म भी इनके खाते में है। आपने एलएलएम सहित एमबीए भी किया है। इंदौर में ही रहकर अभिनय प्रशिक्षण देते हैं। 10 साल से नेपथ्य नाट्य समूह में मुम्बई,गोवा और इंदौर में अभिनय अकादमी में लगातार अभिनय प्रशिक्षण दे रहे श्री खत्री धारावाहिकों और फिल्म लेखन में सतत कार्यरत हैं।