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शायद हमें एक संत ना खोना पड़ता!
ये हमारी परम्परा सी बन गई है कि हम मरने के बाद सब को “स्वर्गीय” मान लेते हैं। इसके लिए अपने तर्क हो सकते हैं ।
“मरे बाद महान” की परपंरा भी हमारे समाज में है, जो जिंदा महान थे उनके मरने के बाद तो भगवान बन जाने का डर रहता है! ये हमारी भवनात्मक कमजोरी है जिसे हम आस्था का नाम दे कर खुद से ज्यादा समाज को धोके में डालते हैं। हम विज्ञान के इस आधुनिकतम युग में भी घनघोर अवैज्ञानिक हैं, इसीलिए शायद कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा है। हम किसी को भी कसौटी पर कसते ही नहीं हैं, जो भी कुछ अलग दिखा उसको पहले सन्त फिर भगवान बना डालते हैं और नतीजा ये होता है कि ठगे जाते हैं। अब क्या वो लोग खुद को ठगा महसूस नहीं कर रहे होंगे जो शन्ति, तनाव से मुक्ति के लिए कतार में लगे रहते थे। बेशक उनके दिमाग में ये सवाल कौंधा होगा लेकिन “मरने बाद महान” की परंपरा ने उनकी जुबान बन्द कर रखी होगी। सवाल तो बहुत सारे हैं। मिसाल के तौर पर क्या संत भी परेशान होते है। हमनें तो पढा है कि बड़े -बड़े ऋषि -मुनि झोपड़ीनुमा आश्रम में रहते, जो भिक्षा मिलती उसी में गुजर करते और मस्त रहते, ना आटे की चिंता ना दाल की फ़िक्र! इसलिए कभी नहीं सुना कि किसी ऋषि-मुनि को कभी आर्थिक परेशानी आई हो, उन्हें तो ना राजा की चिंता ना परवाह रंक की। इसलिए जैसा हैं उसी में मस्त , बस वो और उसका ईश्वर बाकी की परवाह नहीं कोई बुलाये तो खुश नहीं ना बुलाय तो दुखी नहीं। जब ये भाव तो चिंता नहीं, जिसे इन सब की चिंता वो सन्त नहीं। जब सन्त नहीं तो बीबी-बच्चों की चिंता, धन कमाने की फिक्र, स्टेटस मेंटेन करने का तनाव । जब ये फिक्र तो परिवार में खटपट। परिवार में खटपट तो तनाव। तनाव तो खुदकुशी!लेकिन हममें ये सोचने की हिम्मत नहीं क्योंकि हम कार्लमार्क्स की अफ़ीम के नशे में अपनी इन्द्रियों पर काबू खो चुके हैं, हम उसके आगे सज्दा करते हैं जो खुद परेशानियों के आगे सर झुका देता हैं। जिसमें इतनी ताकत नहीं कि अपने घर के झगड़े सुलझा ले और हम उसके पास अपनी जिंदगी के मसले सुलझाने चले जाते हैं, अब हमारी समस्या भले सुलझे ना सुलझे लेकिन हम एक सामाजिक समस्या तो पैदा कर ही देते हैं, आत्महत्या भी एक सामाजिक समस्या ही है। आत्महत्या के लिए भी हम ही जिम्मेदार हैं। हम कमज़ोर लोगों से उम्मीद पाल लेते हैं वो उम्मीद पर खरा नहीं उतरता और दबाव में खुद जान दे देता हैं। हमने ये नज़रिया बना रखा है कि जो सन्त होगा वो सेक्स नहीं करेगा, शादी नहीं करेगा, उसके बच्चे नहीं होंगे इस दबाव में कई सन्त शादी नहीं करते लेकिन सेक्स करते हुए पकड़े जाते हैं । हम ये मान लेते कि भले ही सन्त है लेकिन हैं तो इंसान उनकी भी वो सब इच्छा है जो हमारी है, बात ही खत्म हो जाती सारे बाबा घर-बार वाले होते और कई कुवारी लड़कियों के घर बसते वो इनके चक्कर में बर्बाद ना होती! खैर, वापस लौटते हैं अगर हमारा ये मानस होता कि सन्त भी मेहनत-मशक्कत की रोटी कमा कर, जिंदगी के उतार-चढ़ाव झेल कर सन्त हो सकता है तो शायद आज हमें एक “राष्ट्रसंत” नहीं खोना पढ़ता।
#आदिल सईद
परिचय : आदिल सईद पत्रकारिता में एक दशक से लगातार सक्रिय हैं और सामाजिक मुद्दों पर इन्दौर से प्रकाशित साँध्य दैनिक पत्र में अच्छी कलम चलाते हैं। एमए,एलएलबी सहित बीजे और एमजे तक शिक्षित आदिल सईद कला समीक्षक के तौर पर जाने जाते हैं। आप मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी इन्दौर में रहते हैं।
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