आख़िर तुम मुझे क्या दे पाओगे ज्यादा से ज्यादा अपराध बोध से भरी हुई अस्वीकृति या आत्मग्लानि से तपता हुआ निष्ठुर विछोह हालाँकि इस यात्रा के पड़ावों पर कई बार तुमने बताया था इस आत्म-मुग्ध प्रेम का कोई भविष्य नहीं क्योंकि समाज में इसका कोई परिदृश्य नहीं मैं मानती रही […]
Uncategorized
शी इश्क़ किया तो फिर न रख इतना नाज़ुक दिल माशूक़ से मिलना नहीं आसां ये राहे मुस्तक़िल तैयार मुसीबत को न कर सकूंगा दिल मुंतकिल क़ुर्बान इस ग़म को तिरि ख़्वाहिश मिरि मंज़िल मुक़द्दर यूँ सही महबूब तिरि उल्फ़त में बिस्मिल तसव्वुर में तिरा छूना हक़ीक़त में हुआ दाख़िल कोई हद नहीं बेसब्र दिल जो कभी था मुतहम्मिल गले जो लगे अब हिजाब कैसा हो रहा मैं ग़ाफ़िल तिरे आने से हैं अरमान जवाँ हसरतें हुई कामिल हो रहा बेहाल सँभालो मुझे मिरे हमदम फ़ाज़िल नाशाद न देखूं तुझे कभी तिरे होने से है महफ़िल कैसे जा सकोगे दूर रखता हूँ यादों को मुत्तसिल #डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’ Post Views: 38
