लोग गालियां भूल न जाएं,इसलिए कुछ लेखक अपनी रचनाओं में जी खोलकर गालियों को भरपूर इस्तेमाल करते हैं। अगर गालीमार्का लेखक नहीं होते तो बेचारी गालियों का क्या होता? लोग धीरे-धीरे भूल न जाते? जब साहित्य में गालियां थोक के भाव में आएँगी तो अज्ञानी पाठक भी यही सोचेगा कि ,गालियां हमारे जीवन के लिए बहुत जरुरी है, इसलिए वह भी बात-बात में मां-बहन को ‘याद’ करता रहेगा। कभी-कभी कुछ लोग साहित्य में बढ़ रही गालियों को लेकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं।मुँह बिचकाकर निंदा करते हैं, ये करमजले नादान लोग हैं। इनमें साहित्य की समझ नहीं है। ये पगले साहित्य के मर्म को ठीक से नहीं समझते। साहित्य का मतलब है सबके हित के साथ चलो,जब गाली देने से पाठक के मनोरंजन का हित होता हो, तो क्यों न दी जाए ? यही फंडा है इनका, इसीलिए आजकल गालियों का प्रयोग हो रहा है। क्या कहानी, क्या उपन्यास, और क्या तो फिल्मों में, जित देखो, तित गाली। और आलोचकनुमा पट्ठा गाली-छाप कृतियों को महिमामंडित करने में लगा रहता है। जिस पुस्तक में जितनी अधिक गालियां होती है,उस पुस्तक को आलोचक उतना अधिक पसंद करता है.। यह बड़े मजे का खेल है, जो साहित्य में खेला जा रहा है और जी भरकर गालियों को ठेला जा रहा है।
हमने गालियों के कारण भयंकर रूप से चर्चित किए गए एक ज्ञानी लेखक से पूछा-‘भाई मेरे, क्या तुम्हारा हर पात्र गाली-गलौज के बिना एक वाक्य भी नहीं बोल पाता ?’उसने कहा- ‘बोल तो लेता है लेकिन मैं बिना गाली-गलौज के लिख नहीं पाता। ससुरी कलम ही आगे नहीं बढ़ती,दो-चार गालियां लिखता हूं तब दस-बीस लाइनें बनती है बावा और पेट भी साफ़ होता है। मेरे लेखन का यह अजीब फंडा है और बिना गालियों के मेरा लिखना अंडा-अंडा है, इसलिए अगर गालियां नहीं लिखूंगा तो मेरा लिखना रुक जाएगा। लिखना रुक जाएगा तो मेरा सांस लेना भी रुक जाएगा। जैसे जीवन में बिन पानी सब सून होता है न, उसी तरह मेरे लेखन में बिन गाली सब सून है।’
इतना बोल कर लेखकजी मुस्कुराए और कहने लगे-‘तुम भी कहानी लिखते हो मगर तुम्हारे पात्र गालियां नहीं देते। पिछड़े कहीं के, यह ठीक बात नहीं। हमें अपने पात्रों को गालीवाला बनाना चाहिए। इससे पात्र बोल्ड हो जाते हैं..हमें साहित्य को आगे बढ़ाना है।’
मैंने कहा-‘क्या हम सात्विक-संवाद बोलने वाले पात्र नहीं गढ़ सकते? क्या गांव का हर व्यक्ति गाली ही देता है? क्या कोई रिक्शा चलाने वाला गाली के बगैर बात नहीं करता ? क्या हर व्यक्ति गालियां देख कर ही अपने वाक्य पूर्ण करता है? मैंने तो ऐसा नहीं देखा। अरे, मैं भी गांव गया हूं। वहां कुछ लोग गालियां भी देते हैं लेकिन हर कोई गाली नहीं देता। आपके हर पात्र गाली बगैर बात नही करते। आपको एक सात्विक उपन्यासकार के रूप में भी याद किया जा सकता था, लेकिन अब आप बोल्डली गाली देने वाले महान लेखक बन गए हैं’।
वे बोले-‘मैं सात्विक -फात्त्विक के फेर में नही पड़ता। इतना जानता हूं कि अगर लोकप्रिय होना है तो गालियां बहुत जरुरी है। आजकल इसी का ट्रेंड है। पहले का जमाना नहीं रहा। तब साहित्य बच्चा था,अब वह जवान हो गया है।वह गाली दे सकता है,और मजे की बात पाठकों को भी अच्छा लगता है,इसीलिए मेरी किताबें खूब बिकती है। ऐसे में मैं भला गालियों का प्रयोग क्यों न करूं ? गालियां लिख-लिख कर कितने सम्मान झटक लिए मैंने। जो बेचारे अपने पात्रों को शालीन बनाए रखते हैं,वे सबके सब लल्लू बनकर किनारे हो गए हैं ,और हम साहित्य के केंद्र में बने हुए हैं। सोचो जरा,गालियों का कितना महत्व है? इसलिए भैया,लाख हमारी आलोचना करो,हम तो गालियों का दामन नहीं छोड़ेंगे,नहीं छोड़ेंगे। भले ही दुनिया छोड़ दें।’
मैंने महसूस किया कि,साहित्य का यह ‘कुलदीपक’ बड़ा सिद्धांतवादी है। वह अपने ‘गालियों के सिद्धांत’ से एकदम नहीं डोलेगा। हमने उसे प्रणाम किया,शुभकामनाएं दी,और कहा-‘हिन्दी साहित्य मैं जब कभी गालियों पर शोध होगा तो आपका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। आप गाली-शिरोमणि हैं, लगे रहें अपने कर्म में।साहित्य की जो नियति होगी,वह होगी,आप अपने कदम से पीछे न हटें।’
मेरी बात को उन्होंने गंभीरता से लिया। अच्छा हुआ कि,वो मेरा व्यंग्य समझ नहीं पाए। मुस्कुराकर बोले-‘ आप जैसे सुधी पाठक ही मेरे लेखन-कौशल को समझ सकते हैं,बाकी तो चिरकुट किस्म के लोग हैं जो मेरी निंदा करते हैं,अब करते रहें। वही कर सकते हैं। वैसे भी आप तो मानेंगे कि गालियां देना सबके बस की बात नहीं। इसके लिए बड्डा वाला कलेजा चाहिए साहब,जो मेरे पास है।बड़ी मशक्कत के बाद मुझे यह ज्ञान मिला है,इसीलिए तो आज आलोचकों की नजर में मैं नम्बर वन का लेखक हूं। बाकी सब दो नंबरी हैं। आपके पास भैया अगर कुछ नई गालियां हो,तो मुझे सप्लाई करने की कृपा करें,ताकि अपनी नई कृतियों में उन्हें शामिल कर साहित्य की सेवा कर सकूं।’
मैं कुछ देर मुस्कुराता रहा.. मैंने कहा-‘आपने तो लगभग सभी का उपयोग कर लिया है। कुछ नई सुनी तो आपको ‘वाट्सएप’ कर दूंगा।’
वे प्रसन्न हो गए और बोले-‘आपका यह उपकार मैं कभी नहीं भूलूंगा।’
इतना सुनकर मेरे मुँह से निकलनेवाला ही था-‘तेरी तो’….मगर चुप रह गया। छोड़ो, बड़े लेखक के मुंह कौन लगे।
#गिरीश पंकज
परिचय : साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में गत चार दशकों से सक्रिय रायपुर(छत्तीसगढ़) निवासी गिरीश पंकज के अब तक सात उपन्यास, पंद्रह व्यंग्य संग्रह सहित विभिन्न विधाओं में कुल पचपन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके चर्चित उपन्यासों में ‘मिठलबरा की आत्मकथा’, माफिया’, पॉलीवुड की अप्सरा’, एक गाय की आत्मकथा’, ‘मीडियाय नमः’, ‘टाउनहाल में नक्सली’ शामिल है। इसी वर्ष उनका नया राजनीतिक व्यंग्य उपन्यास ‘स्टिंग आपरेशन’ प्रकाशित हुआ है..उनका उपन्यास ”एक गाय की आत्मकथा’ बेहद चर्चित हुआ, जिसकी अब तक हजारों प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. लगभग पन्द्र देशो की यात्रा करने वाले और अनेक सम्मानों से विभूषित गिरीश पंकज अनेक अख़बारों में सम्पादक रह चुके हैं और अब स्वतंत्र लेखन के साथ साहित्यिक अनुवाद की पत्रिका ”सद्भावना दर्पण ‘ का प्रकाशन सम्पादन कर रहे हैं।