सच ही है यह
असहाय हो जाता है
उस वक्त एक पिता
जब समर्पित कर देता है वह
अपने जिगर के टुकड़े को
दस्तूर और विश्वास के चलते
एक अजनबी के हाथ।
मानकर यह – कि रहेगी वहाँ
सदा सुखी और सम्पन्न
मिलेंगी उसे खुशियां अपार
होगा उसका अपना भी घर-संसार।
पर टूट जाता है यह विश्वास तब
जब बेटी होती है ससुराल में आहत
बात-बात पर मिलते हैं ताने
हो जाते हैं जैसे सब बेगाने
सम्पूर्ण समर्पण के बाद भी ।
समझें इसे –
आती है जब भी कोई
नवविवाहिता घर में हमारे
होता है उसके लिए सबकुछ नया।
लगता है समय –
नये माहौल , नये परिवेश में
ढ़लने के लिये उसे
क्योंकि,
छोड़ती है वह , बाबुल का घर
जहां बड़ी होकर भी
रहती है सदा ही बच्ची बनकर।
छोड़ती है स्वतंत्रता भी अपनी
नए घरौंदे को सहेजने के लिए।
नहीं जानती –
क्या होता है समर्पण
पर करती है वह इसे भी पूरा
समझ से अपनी ।
हमें भी समझकर यह सब –
अपनाना होगा उसे ।
देना होगा वह माहौल
जिससे फलित हो समर्पण उसका
सबको प्रमुदित करने के लिए ।
बनाएंगे न हम माहौल ऐसा ..?
समर्पण की सार्थकता के लिए !
#देवेंन्द्र सोनी