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पुस्तक समीक्षा…………
वही कविता भविष्य की यात्रा तय कर पाती है जो हमारे जीवन से जुड़ी हो। उसके भाव हमारे दिल की उपज हो या दिल द्वारा ग्राह्य। जो सरलता,सहजता, सार्थकता,माधुर्य,प्रासाद एवं स्पष्ट कथन के संगम पर पाई जाती हो। रस की निष्पत्ति स्वाभाविक रूप से दिल के रास्ते चेहरे पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराए।
अपने नौवें काव्य संग्रह ‘तार पर टँगी बूँदें’ के साथ कवियित्री,लेखिका एवं पेशे से शिक्षिका श्रीमती निशा नंदिनी गुप्ता काव्य प्रेमियों के बीच उपस्थित हैं। ५५ कविताओं की सम्पदा से सम्पन्न इस पुस्तक में कवियित्री समाज में व्याप्त असंतोष व व्यापारीपन से ज़ार-ज़ार होकर कह उठती है,-‘संतोष शब्द कलयुगी शब्दकोश से गायब है। आज हर व्यक्ति व्यापारी बन गया है।’ उत्तर प्रदेश की जन्मभूमि से आसाम की कर्मभूमि तक का सफ़र भौगोलिक, प्राकृतिक,सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता से आप्लावित है जो अनुभव की भट्टी में पककर जायका बढ़ा देता है।
कविता भावों के सम्प्रेषण का सबसे सहज,सरल व सुलभ माध्यम है। कवियित्री ने यह साबित भी कर दिखाया है कि,छंदों के बौद्धिक बोझ व अलंकारिक चमत्कार से रहित अतुकान्त कविता भी भावों की प्रबलता के साथ अपनी जगह बना सकती है। प्राय: रचनाकारा ने अतुकान्त एवं कुछ तुकान्त कविताओं का सृजन किया है किन्तु छंद- मोह से स्वयं को दूर ही रखा है।
आइए,कुछ अंशों का रसास्वादन करें-
‘जड़विहीन वृक्ष’ में कवियित्री कहती है कि चाहे हम कितनी भी ऊँचाई क्यों न प्राप्त कर लें,किन्तु आधार छूट गया तो कुछ न बचेगा-
‘जड़ों से कटकर,
नहीं कहीं ठौर-ठिकाना।’
पुस्तक की शीर्षक कविता में एक नन्हीं- सी बूँद जो बिजली के तार पर स्वेच्छा से टँगी है,ललकार उठती है-
‘हम देखने में हैं छोटी
पर हिम्मत से बड़ी हैं,
हम तो स्वेच्छा से
तुम्हारे झूले पर टँगी हैं।’
श्रम के आधार ‘मजदूर’ को मई की पहली तारीख़ को सम्मानित किया जाता है किन्तु रचयिता का मानना है कि मजदूर तो रोज ही सम्मान के अधिकारी हैं-
‘एक मई तो एक बहाना है,
उनको तो हर दिन सम्मान पाना है।’
आजादी के आठवें दशक में भी कई प्रमुख विषयों पर हम बोल नहीं पाते, अभी गुलामी की छाया के भ्रम-जाल से मुक्त नहीं हो पाए हैं। ‘जुबां पर ताला’ कविता में कवियित्री आह्वान करती है-
‘हो गया है जरूरी
तालों का टूटना,
मिली हुई आजादी का
इस्तेमाल करना।’
गलत राह पर चलकर कभी किसी ने सही परिणाम नहीं पाया है फिर भी हम उल्टी राह के राही हैं-
‘खोज रहा है
हर कोई आज शान्ति,
पर खरीद रहा है अशान्ति।’
‘कहाँ है भारत की आजादी’ कविता में समृद्ध भारत और मॉडर्न इंडिया के बीच भेद की रेखा खींचने की कोशिश की गई है-
‘भारत को भारत ही रहने दो
मत बनाओ इंडिया,
बनकर इंडिया न होगा कुछ हासिल।
होगी सच्ची जीत हासिल
जीवन का तत्व मिल जाएगा।’
कौमी एकता के प्रतीक चाँद से सवाल पूछते हुए ‘हमसफर’ कविता का अंश-
‘हरेक के आँगन में
तू हर रोज आता है,
सीता का चंद्रमा और
सलमा का चाँद बन जाता है।’
इनके अतिरिक्त ‘बातचीत खर्राटों की’ पढ़कर हँसे बिना नहीं रहा जा सकता। इसके विपरीत ‘कठपुतली’, ‘यादों का मसीहा’, ‘उदासी तिरंगे की’ भाव निमग्न होकर मानसिक कसरत के लिए मजबूर करने वाली रचनाएँ हैं। श्रद्धेय भूपेन हजारिका को याद करते हुए ‘सदिया सेतु’ का अपना ही स्थान है। असम की नैसर्गिक सुषमा पर्यावरण के प्रति सचेत करती है।
कवियित्री श्रीमती गुप्ता कृत ‘तार पर टँगी बूँदें’ काव्य एवं गद्य की तकरीबन एक दर्जन पुस्तकों के अनुभव के बाद आई है,जो परिपक्वता की परिचायक है। अधिकतर कविताएँ जीवन के परित: परिवेश जनित हैं। इसमें पुरातन से लगाव व नवागत के अभिनन्दन का पुट विद्यमान है। यद्यपि यदा-कदा मौलिकता के अभाव से इंकार नहीं किया जा सकता,उपमानों की पुनरावृत्ति तथा शीर्षकों में जादुईपन है तथापि रस का प्रवाह मानस को सराबोर करता हुआ प्रथम सोपान से बिना विश्राम के अंतिम सोपान पर लाकर खड़ा करता है। धरातलीय अपेक्षा है कि ‘तार पर टँगी बूँदें'(संस्करण-प्रथम) साहित्य प्रेमियों की गोद में स्नेहासिक्त होकर मोती बनेगी।
#अवधेश कुमार ‘अवध’
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