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आग
कहां की
तन की
मन की
जंगल की
समुद्र की
महत्वपूर्ण
जलने न दिया जाए
भड़क न पाए।
कभी राजनीति की
कहीं स्वार्थ की
पदलोलुपता की
पर-
यह शिष्टाचार का सफर
भ्रष्टाचार तक ही
इसीलिए
गम्भीर न
गम्भीर तो है
पेट की
भूख की आग
जो क्या न करा दे
आदमी को
गद्दार बना दे
इसीलिए चिन्ता से
चिंतन सबसे पहले हो
पेट की आग का
भूख का
उसके इलाज का
बाकी तो
जलती भी रहेंगी
बुझती भी
पर
सबसे पहले
बुझना जरूरी है
पेट की आग का
भूख का
जी हां भूख का ।
शशांक मिश्र भारती
शाहजहांपुर, उ0प्र0
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