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क्या है ख़ता बेटियों की,
ये बताओ तो ज़रा।
क्यों झेलती ये दंश हैं,
समझाओ तो ज़रा।
पैदा हुईं जिस घर में,
वो घर भी ना उनका।
होते हुए अपनों के,
है ना कोई भी उनका।
मिला कम जो औरों से,
ना किया कभी गिला।
जबतक रहा जीवन ये,
यूँ ही चला ये सिलसिला।
दो घरों की चौखटों पर,
भटकती रही सदा।
दामन वो आँसुओं से,
भिगोती रही सदा।
रही उसी में खुश वो,
जो था सबका फैसला।
ना की कभी जिद कोई,
ना किया कभी झगड़ा।
हुई विदा घर से वो,
जहाँ उसे विदा किया।
माँ बाप की खुशी को,
बस दर्जा प्रथम दिया।
जन्नत बनाया घर को,
जो घर उन्हें मिला।
अर्पण किया है जीवन,
जो है उन्हें मिला।
बनकर कभी माता वो,
जग निर्माण करतीं हैं।
ममता की छांव से सदा,
हमें निहाल करतीं हैं।
बनकर बहन कभी ये,
घर में खुशियाँ लातीं हैं।
बनकर कभी बेटियाँ,
घर में चहचहाती हैं।
बिन बेटियों के घर में,
ना खुशियाँ हैं कोई।
पूछ लो उनसे कभी,
जिनके ना बेटी है कोई।
पराया बता के उसको,
सदा अपमान है किया।
दहेज़ जी अग्नि में फिर,
उसको भस्म है किया।
ठिकाना ना उसका कोई
ना होता उसका मकान है।
कैसी परम्परा ये जग में,
और ये कैसा विधान है।
मानों मेरा कहना सभी,
बेटी को मान दो।
उड़ने को अम्बर में उसे,
खुला आसमान दो।
बेटों से तनिक भी ना,
कम होती हैं बेटियाँ।
बेटों की कमी पूरी सदा,
करतीं हैं बेटियाँ।
सृष्टि का आधार हैं,
सार गीता का बेटियाँ।
पावन हैं गंगा,यमुना सी,
तान वीणा की बेटियाँ।
स्वरचित
सपना(स. अ.)
प्रा.वि.-उजीतीपुर
वि.ख.-भाग्यनगर
जनपद- औरैया