मेहरबां हम थे

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ज़िन्दगी में किसी पे मेहरबां हम थे
जहाँ में अब कहाँ हैं कल कहाँ हम थे।

अभी हालात से मज़बूर हैं लेकिन
तुम्हारी जिंदगी की दास्ताँ हम थे।

तुम्हारी बदज़ुबानी चुभ रही लेकिन
ज़िन्दगी में सलीके की जुबां हम थे।

ये तख़्तों ताज हुकूमत कब तलक
वो सब भी वहाँ है जहाँ हम थे।

नफ़रतों की भीड़ में कहीँ गुम हो गया
वो बढ़ते भाईचारे का गुमाँ हम थे।

कभी एक मरता है वो दूजा मारता है
रोको उनको सब आग है धुआँ हम थे

-आकिब जावेद
बिसंडा,बाँदा,उत्तर प्रदेश

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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