
फितरत से वो बाज ना आएं,
जो दिल के काले होते हैं।
चेहरे पे चेहरे लाख चढ़ाएं,
जो झूठ के पुतले होते हैं।
हर पल और हर मौसम में,
गिरगिट सा रंग बदलते हैं।
दौलत शौहरत की खातिर ,
अपना ईमान बेचते हैं।
मिश्री से बोल जुबां पे रहते,
शुभचिंतक बनते फिरते हैं ।
भोकें छुरा सदा पीठ पर,
जो अपने बनते फिरते हैं।
चिकनी चुपड़ी बातें करके,
हमें मक्खन खूब लगाते हैं।
ऐसे, वैसे और कैसे भी ये,
बस अपना काम बनाते हैं।
खुद के दोष छिपाने को ये,
औरों के दोष गिनाते हैं।
अपना गला बचाने को नित,
औरों पर इल्जाम लगाते हैं।
लालच के भेड़िए आस पास,
खुले आम विचरण करते हैं।
घात लगाए लगाकर बैठते ये,
चतुराई से वार फिर करते हैं।
जो स्वार्थ पूजते फिरते हैं,
बड़े मन के मैले होते हैं।
खुद के दुर्गुण ना देखना चाहें,
औरों में खोजते रहते हैं।
सुख चैन लूट कर औरों का,
मन्द मन्द मुस्काते हैं।
पहुंचा कर चोट किसी को ,
धीरज फिर बंधाते हैं।
मासूमियत का पहन चोला,
ये बहरूपिये बन जाते हैं।
अपने गैरों की भीड़ में ये,
ना पहचाने जाते हैं।
लो बुद्धि से काम सदा तुम,
यूँ ही ना एतवार करो।
नीर क्षीर विवेक से तुम,
अपनों की पहचान करो।
बनेगा जीवन सरस तुम्हारा,
बस इतना सा काम करो।
ऐसे फितरत बाजों पर,
कभी ना तुम विस्वास करो।
स्वरचित
सपना (स. अ.)
जनपद-औरैया