जब सोलह की रही होऊंगी,
आईना बड़े चाव से देखती थी..
मगर आज जब बरसों बाद, अनायास आईने में खुद को देखा
नजरें ठिठकी और विस्मित हुई,
क्या मैं ही थी या कोई और,
कितनी बदली हुई रंगत।
मुस्कान के कुछ सूखे,
अवशेष चिपकाए हुए..
आँखों के कोरों पर सपनों
की कालिमा बरबस दबी-सी।
कपोलों पर तो जैसे जिंदगी
जिद में जीने की फीकी फिक्र,
आज बरसों बाद देखा आईना
खुद को नहीं पहचान पाई,
काश! हर रोज देखा होता।
#विजयलक्ष्मी जांगिड़
परिचय : विजयलक्ष्मी जांगिड़ जयपुर(राजस्थान)में रहती हैं और पेशे से हिन्दी भाषा की शिक्षिका हैं। कैनवास पर बिखरे रंग आपकी प्रकाशित पुस्तक है। राजस्थान के अनेक समाचार पत्रों में आपके आलेख प्रकाशित होते रहते हैं। गत ४ वर्ष से आपकी कहानियां भी प्रकाशित हो रही है। एक प्रकाशन की दो पुस्तकों में ४ कविताओं को सचित्र स्थान मिलना आपकी उपलब्धि है। आपकी यही अभिलाषा है कि,लेखनी से हिन्दी को और बढ़ावा मिले।