
कापी का कोरा पन्ना फाड़ा और उसे एक आकार दिया शायद वह कागज का ऐरोप्लेन बन गया था अपने नन्हे-नन्हे हाथों को अधिकतम उंचा उठाकर हवा में उछाल दिया, कुछ दूर तक हवा में तैरने के बाद वह कागज वापिस आकर नीचे गिर गया………फिर उसे उठाया और फिर उछाला……..अबकी बार कागज का टुकड़ा कुछ ज्यादा दूर तक गया………नन्हे-नन्हें हाथ ताली बजाने लगे…….मेरा हवाई जहाज उड़ गया……उसके चेहरे की खिलखिलाहट की गूंज पूरे आॅंगन में फैल गई……..दाना चुगती चिड़ियों ने कौतुहल के साथ बच्चे को देखा । यह बच्चा तो उनका मित्र है….वह उनके साथ खेलता है और उनकी तरह कूदने का प्रयास करता है । आंगन के बाहर धूलधूसरित मैदान में कुछ बच्चे गेंद खेल रहे हैं, गेंद एक ही झटके में दूर बहुत दूर चली जाती है, कोई दूसरा उसे उठाकर लाता है, अबकी बार गेंद गंदे पानी की नाली मंे गिर जाती है, बच्चा हिचकता है फिर यहां-वहाॅ देखता है और झटके के साथ गेंद को उठाकर भाग जाता है खेलने के लिए । बच्चों के खेलने के ये दृश्य अब गायब हो चुके हैं परिवेश से ।
बचपन गुम हो गया है । बचपन प्रौढ़ हो गया है । बचपन के पास शरारतें नहीं बची हैं, वह जानता ही नहीं हैं इनके बारे में, उसके तो गमले में लगे फूलों को भी केवल सरसरी निगाहों से देखा है, उसने तो बाहर के धूल भरे मैदान को भी नहीं देखा है, उसे बरसात के बहते पानी की कीचड़ को देख कर घिन आने लगी है, उसे बरसात के पानी में भीगने के आनंद का मतलब ही पता नहीं है । वह स्कूल की किताब में देखता है चिड़ियों का चहचहाना, वह स्कूल किताब में देखता है मोर का नाचना, वह स्कूल की किताब में देखता है ‘‘कंचे’’ और ‘‘गिल्ली डंडा’’ वह अचंभित हो जाता है अच्छा एक छोटे से लकड़ी के टुकड़े को एक बड़ी सी लकड़ी से मार का उछाला जा सकता है बहुत दूर तक, ऐसा तो केवल क्रिकेट में होता है बाल के साथ’’ उसके वीडियों गेम में क्रिकेट का खेल है जिसमें वह बटन दबा कर स्वंय ही बालर बन जाता है और स्वंय ही बेटसमेन, बटन के माध्यम से वह फोर भी लगा लेता है और सिक्सर भी, वह स्वंय ही ताली बजा लेता है । उसे पता नहीं की बरसात के बहते पानी में कागज की नाव कैसे चलाई जाती है, उसे पता नहीं कि ‘‘छीलछिलाई’’ का खेल कैेसा होता है । कभी कभार जब उसका मन पढ़ने में नहीं लग रहा होता तब वह किताब में बने चित्रों को देखकर प्रसन्न हो जाता है, उसकी किताब में साइकिल का पुराना टायर दौड़ाते एक बालक का चित्र है जो चके के साथ दौड़ रहा होता है,उसकी उंचाई से बड़ा चका और उससे ज्यादा गति वह आश्चर्य के साथ देखता है । वह मन ही मन सोचता है कि यह इतना छोटा है तो यह पढ़ क्यों नही रहा, उसे इतनी फुरसत कैसे मिल जाती है कि वह पढ़ भी ले और चका भी चला ले और कुत्तों के पीछे भी भाग ले, उसकी मम्मी उसे डांटती नहीं है । वह बंद कमरे की अंजना खिड़की से देखता है बाहर की ओर, खिड़की खोल नहीं सकता क्योंकि उससे धूल उड़कर आ जाती है कमरे में, वह सूरज की तेज रोशनी को देख नहीं सकता आंखो चुभती हैं उसकी । वह पांच साल की उम्र में समझदार जो हो गया है ।
बचपन गुम हो गया है अपने माॅ-बाप के सपनों का भार ढेाते-ढोते । पांच साल की उम्र में उसके चेहरे पर प्रोढ़ता की समझदारी परिलक्षित होने लगी है । बाल अधिकार कहता है कि ‘‘शान द्वारा बच्चों के उचित विकास के लिए खेल, आमोद-प्रमोद, विश्राम, छुट्टियां, शिक्षण आदि उनकी शाररिक स्थिति और उम्र के हिसाब से किया जाये । बच्चे की सांस्कृतिक एवं कलात्मक अभिरूचि को प्रोेत्साहित किया जाये ।’’ याने मानव अधिकार मानता है कि बच्चों के लिए केवल पढ़ाई की मजबूरी ही पर्याप्त नहीं हे उनके लिए खेल भी आवश्यक हैं और सांस्कृतिक गतिविधियाॅ भी । पर ऐसा हो नहीं रहा है । बच्चों के सिर पर पढ़ाई का बोझ है । पढ़ाई के बोझ ने उसे बालपन की गतिविधियों से दूर कर रखा है । उसका मन भले ही खेलने का हो पर किताब और होमवर्क का भार उसे ऐसा करने नहीं देता । उसके बेग में दस किताबें हैं, उनका वजन उसके वजन से अधिक है वह उस बेग को पीठ पर लादकर चलता है, कमर झुकाकर चलता है, पीठ तो भार सहन करने की क्षमता रखती है पर उसके नन्हे-नन्हें हाथ ऐसी क्षमता नहीं रखते । बाल अधिकार कहते हैं कि ‘‘बच्चों से किसी भी तरह का ऐसा कार्य नहीं लिया जाए जो उनके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या नैतिक विकास में बाधा उत्पन्न करें । स्कूल का बेग और उसमें आवश्यकता से अधिक रखी पुस्तकें तो बाल अधिकार की इस कंडिका का उल्लंघन कर रहीं हैं ? प्राइवेट शिक्षण संस्थानों के प्रति अभिभावकों का बढ़ा रूझान और अभिभावक की इस मानसिक गुलामी को फायदा उठाते संस्थान बच्चों के लिए सिरदर्द साबित हो रहे हैं ।
कड़कड़ाती ठंड की सुबह बच्चे को उसकी इच्छा के विरूद्ध उठा दिया गया है बिस्तर से । अनमना बच्चा तैयार हो रहा है स्कूल जाने के लिए । सारे घर में भगमभाग मची है, वह ड्रेस पहनकर तैयार हो चुका है, उसका नाष्ता उसके डिब्बे में रख दिया गया है अभी तो उसने कुछ खाया भी नहीं है उसे खाली पेट ही जाना होगा स्कूल । आधी छुट्टी में वह टिफिन में से कुछ खा लेगा यही उसका भोजन है । उसके चेहरे पर हर दम गहन गंभीरता बिखरी होती है । कक्षा में वह ध्यान लगाकर पढ़ता है वह अपने साथी के साथ बात तक नहीं कर पाता मेडम की खूंखार निगाहें हर पल उसे काटने को दौड़ती है । पूरे दिन में बेग में रखी एक एक किताब निकाली जाती है और थोड़ा बहुत पढ़ाया जाता हे । उसे होमवर्क कर के लाना अनिवार्य है नहीं तो मेडम जी की छड़ी उसके हाथ की हथेली को लाल कर देती है । पूरे दिन वह केवल और केवल किताबों के पन्ने पलटता रहता हेै उसे पता ही नहीं चलता कि पूरा दिन व्यतीत कैसे हो गया । उसके पर मानसिक दबाब है, वह भले ही इसकी परिभाषा नहीं जानता पर वह अपने मन को व्यथित तो महसूस कर ही लेता है । स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद वह स्कूल बस में बैठा-बैठा इंतजार करता है अपने घर आ जाने का । बस पूरे शहर का चक्कर लगाकर घंटे भर में छोड़ती है उसे । भूख से वह बैचेन हेै पर चुप है बस को जितनी देर लगती है उसकी बैचेनी बढ़ती जाती है । जो बच्चे बस से उतरते हैं उनके चहेरे पर मुस्कुराहट नहीं झुंझलाहट ही होती । बच्चों का बोझिल मन और अभी कार्य पूरा न होने की झुझलाहट चेहरे पर नजर आती । ढेर सारा होमवर्क स्कूल में दिया गया हे । हर कितबा का अलग होमवर्क, हर मेडम का अलग होमवक्र्र……..इस बीच उन्हें ट्यूशन पढ़ने भी जाना है । शेष बचा सारा दिन ऐसे ही निकल जायेगा, उनके पास समय ही नहीं है कि वे देखें कि शम हो चुकी है, कि वे देखें आसमान में तारों संग चांद उदित हो चुका है वे इस दुनिया से अलग तथाकथित शिक्षण की दुनिया में खोये हुए हें, वे कक्षा दर कक्षा अपनी व्यस्तता को बढ़ाते हुए किताबों में उलझे हुए हेंै । घर में कोइ्र्र भी आ जाए पड़ोसी, नाते रिश्तेदार, घर में कोई भी उत्सव आ जाए उनके पास उनमें सहभागिता निभाने का समय ही नहीं है। बचपना गुम हो गया है बचपने की परिभाषा बदल चुकी है । घर में बच्चों के होने के बाबजूद भी घर के किसी कोने में नहीं गूंजती बच्चों की खिलखिलाहट, घर के किसी कोने में नहीं दिखाई देती बच्चों की शरारत । जिन पुराने घरों की दीवारों ने बच्चों का बेफिक्र बचपना देखा है उनके अदृश्य चेहरे पर भी उदासी है, उनकी बेजान उपस्थिति भले ही किसी के लिए बेमतलब की हो पर उनकी गरम सांसों में बचपने के गुम हो जाने की वेदना है ।
बच्चों का संविधानिक अधिकार कहता है कि ‘‘बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातवरण में स्वस्थ्य विकास के अवसर और सुविधाएॅ दी जाएं । कम से कम बच्चों के शेाषण की रक्षा की जाए ।’’ इस शोषण को कैसे परिभाषित किया जायेगा । अभिभावक तो अपने स्वप्नों को बच्चों के भविष्य से जोड़कर ‘‘जो कर रहे हें बच्चों के भविष्य के लिए ही तो कर रहे हैं’’ कहकर अपने किए को विराम दे देते हैं । बच्चों का एकाकी होता जीवन किसी परिभाषा में समाहित नहीं हो सकता उसकी खत्म होती संवदेना को कैसे रेखांकित किया जा सकेगा, उसकी मौलिक स्वतंत्रता तो शिक्षा के नाम पर समाप्त कर दी गई उसे कौन जान पायेगा । क्या किताबी ज्ञान ही शिक्षा है, क्या बाहरी दुनिया का ज्ञान शिक्षा नहीं होता, क्या बचपने की उद्दडंता शिक्षा के अंतर्गत नहीं आती । कोई समझने को तैयार नहीं । स्कूल की किताब और कम्प्यूटर का माउस ही बच्चों की दुनिया बन चुका है । बाल अधिकार कहते हें कि ‘‘सभी राष्ट्रसामूहिक प्रयत्न करे कि अज्ञानता और निरक्षरता विश्व में पूरी तरह समाप्त हो और वैज्ञानिक एवं तकनीकि शिक्षा सभी को समान रूप से उपलब्ध हो सके ।’’ साथ ही सभी राष्ट्रो ने स्वीकार किया है कि शिक्षा का स्वरूप इस तरह हो कि बच्चों का व्यक्तित्व,शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह विकसित हो सके । बच्चों को मानव अधिकारों, प्रतिष्ठा और मूलभूत स्वतंत्रता की जानकारी दी जाए ताकि वे संवदेनशील बन सकें । माता-पिता, संस्कृति, भाषा और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आदर जागृत किया जाए भले ही उनका जन्म किसी भी भौगोलिक या सामाजिक परिस्थितियों में हुआ हो । ’’
बाल अधिकार यह भी कहता है कि ‘‘शिक्षा व्यवस्था इस तरह हो कि बच्चे स्वस्थ्य और जिम्मेदार नागरिक के रूप में सौहार्द्र, भाई चारे तथा मातृत्व के साथ रह सकें और किसी तरह की संकीर्ण भावाना, साम्प्रदायिकता आदि से उनका सामाजिक जीवन अवरोध न हो । बच्चों में प्राकृतिक सम्पदा, पर्यावरण एवं जीव-जन्तु के प्रति आदर और उनके संरक्षण की भावाना विकसित हो । ’’
बाल अधिकर कहता है कि ‘‘शासन द्वारा बच्चों के उचित विकास के लिए खेल, आमोद-प्रमोद, विश्राम, छुट्टियां, शिक्षण आदि उनकी शारीरिक स्थिति और उम्र के हिसाब से किया जायेगा । उनकी सांस्कृतिक एवं कलात्मक अभिरूचि को प्रोत्साहित किया जायेगा ।’’ परंतु परेशानी यह ही है कि हम सुनहरे भविष्य के कल्पना में उनका वर्तमान छीन रहे हेै । एक ऐसा वर्तमान जो उनके भविष्य की नींव को मजबूत बना सकता है । पर उसकी अपनी परिभाषा है और अभिभावकों की अपनी परिभाषा। बालपन की अठखेलियों को हम शिक्षा का अंग न मानने की भूल कर रहे हें, बच्चों को खेलों से दूर कर हम उनसे खेल के साथ प्राप्त किए जाने वाली शिक्षा को छीनने का अपराध कर रहे हैं । किसी ने कहा है कि ‘‘अपने बच्चों के लिए माॅ शास्त्र का काम करती है और पिता शस्त्र का । दोनों का उद्देष्य अपनेबच्चे के मंगलमय और उज्जवल भविष्य का निर्माण ही होता है । माॅ पुचकार कर बच्चे को समझाती है और पिता फटकार कर । जो काम एक माॅ प्यार से करती है, वही काम एक पिता थोड़ा सा कठोरता दिखाकर करता है । जीवन न बिना शास्त्र के चलता है और न हीबिना शस्त्र के । जहाॅ पर सही और लगत का निर्णय न हो वहाॅ पर शास्त्र काम आता है और जहाॅ पर निर्णय ही गलत हो वहाॅ पर शस्त्र काम आता है । ’’बच्चों के भविष्य को संवारना मात-पिता का दायित्व है पर इस दायित्व में यह भी निहित माना जा सकता है कि बच्चों का बालपन स्वतंत्र रहे । यह बालपन की अठखेलियां ही तो हें जो कहती हैं कि ‘‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए बचपन को’’ । बालपन स्वतंत्र था इसलिये अठखेलियां करता था, शरारतें करता था और उनसे ज्ञान प्राप्त करता था हमने बालपन को कैद कर लिया है हमने बालपन को शिक्षा के पिंजरे में बेद कर दिया है अपराधबोध तो पैदा होना ही चाहिये । बच्चों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए प्रचार-प्रसार माध्यमों का भी उचित दशा में उपयोग करना सदस्य राष्ट्र का उत्तरदायित्व होगा । साथ ही उनके संरक्षण और संवध्रन के लिए विशेष सुविधाएॅ उपलब्ध कराने के लिए कार्यक्रम चलायें जायेगें ।
बच्चों के गुम होते बचपने से मानव अधिकार भी चिंतित है पर दुःखद यह है कि वो समूह जिसमें माता-पिता भी सम्मलित हेै । गुम होते बालपन को कानून से नहीं बांधा जा सकता उसके लिए तो जागरण ही बेहतर उपाय है । इस जागरण में कानूनों का उपयोग अवश्य किया जा सकता है । समय अभी भी है कि अंधानुकरण की दौड़ से स्वंय भी बाहर निकलें और अपने बच्चों के भविष्य को भी बाहर निकालें । बचपना रहेगा तभी तो खुशियाली रहेगी तभी तो घरों के बंद कमरों में किलकारी गूंजेगीं । बच्चों की यह किलकारी आनंद का वातावरण बनाती है यह आनंद ही तो सुनहरे भविष्य की नींव रखता है ।
कुशलेंद्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर म.प्र.