कुदरत का कहर

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कुदरत के कहर से धरती आज कांप रही है।
कारे भी कागज की नाव की तरह तैर रही है।।

जिधर देखो हर तरफ हाहाकार मचा हुआ है।
कुदरत के इस कहर से आज मानव पस्त हुआ है।।

जिधर देखो पानी ही पानी सब बाढ़ग्रस्त हुए है।
खाने पीने की बात छोड़ो रहने के लिए त्रस्त हुए है।।

कुदरत कातिल बनी है सब जल मग्न हुए है।
हर तरफ कोरोना से और रोगों से रुग्ण हुए है।।

फसलेे चौपट हो गई है सब लोग बेघर हुए है।
सरकार के सब बचाव प्रोग्राम बेअसर हुए है।।

कुदरत का ऐसा तांडव नृत्य न देखा था हमने।
कुदरत ने भी बदला ले लिया जो हरकत की थी हमने।।

आर के रस्तोगी
गुरुग्राम

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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