विश्व में अपनी भाषाओं से ही है जन-जीवन और विकास -प्रो.पुष्पिता अवस्थी(नीदरलैंड)

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भाषाएं सभ्यताओं की जननी हैं। भाषाओं में संस्कृति के स्रोत अनुस्पूत हैं। भाषाओं में हमारी अभिव्यक्ति के सूत्र समाहित हैं। हम सबकी अभिलाषाओं के स्वप्न भाषाओं में ही उजागर होते हैं। किसी भी अन्य देश की वास्तविक नागरिकता उस देश की भाषा के नागरिक होने पर ही संभव होती है। यही कारण है कि,किसी भी दूसरे देश की संस्कृति को जीने और जीतने का सुख उस देश की भाषा सीखने पर ही संभव हो पाता है।
          डच भाषा,जिसे आजकल ‘नीदरलैंड ताल’ भी कहते हैं(डच भाषा में भाषा को ‘ताल’ कहते हैं),जीवन से तालमेल बनाए रखती है। नीदरलैंड देश में स्कूली स्तर से 3 भाषाओं(यूरोपीय)के सीखने का प्रावधान है,इसलिए इस देश के नागरिक प्रायः फ्रेंच,जर्मन,स्पेनिश,पोर्तगीज और इटेलियन भाषाएं जानते हैं। यूरोप के सभी देश जर्मनी,फ्रांस, इटली,स्पेन,पुर्तगाल,नॉर्वे,डेनमार्क और पोलैंड इन सभी देशों की अपनी राष्ट्र भाषाएँ हैं और उन्हीं भाषाओं में उन देशों  का राजकाज चलता है और समाज का सांस्कृतिक जीवन गतिशील रहता है। यद्यपि इन सभी देशों में विश्व के कई देशों के नागरिक रहते हैं,भारत के ही कई प्रांतों के(बंगाल,तमिलनाडू,आंध्रप्रदेश,गुजरात,ओडिशा और राजस्थान)के रह रहे हैं,लेकिन इस देश में नौकरी करने और अपना जीवन जीने के लिए विदेशों के लोगों को वहाँ की ही समाज की व्यवस्था का नागरिक होने के लिए इनकी भाषा जानना सरकारी तौर पर अनिवार्य है।
यूरोप के अंतर्गत आने वाले किसी भी देश के स्कूल,कॉलेज और विश्वविद्यालय में वहां पढ़ाने वाली भाषा वस्तुतः उस देश की अपनी भाषा ही रहती है। उदाहरणस्वरूप नीदरलैंड के किसी भी स्कूल,कॉलेज और विश्वविद्यालय के किसी भी विषय की कक्षा हो,लेकिन वहां शिक्षण का आधार डच भाषा ही रहती है,जबकि उस कक्षा में टर्की,मोर्की,नीग्रो, सूरीनामी,हिन्दुस्तानी,डच,फ्रेंच आदि देशों के विद्यार्थी भी होते हैं। इन सबकी अपनी मातृभाषाएं रहती हैं,जिनके साथ वे अपने घर-परिवार और समाज में जीते हैं। इस देश में पढ़ने और नौकरी के लिए डच भाषा का ही सहारा लेना पड़ता है। डच भाषा के बिना इस देश के नागरिक को कहीं कोई नौकरी नहीं मिल पाती है। वह फिर कार्यालय का सफाई कर्मचारी हो या रेस्तरां का वेटर।
डच सहित यूरोप के किसी भी देश में जीविका और जीवन में अंग्रेजी का कोई प्रवेश नहीं है,इसलिए इन देशों में किसी तरह की उच्च स्तरीय गोष्ठी-सेमिनार होने पर हिस्सा लेने वालों को अपने साथ अनुवादक लेने पड़ते हैं। जिस तरह कहीं जाने के लिए व्यक्ति को टैक्सी चाहिए,वैसे ही इन देशों में घूमने वालों को उस भाषा तथा अंग्रेजी भाषा जानने वाला गाइड चाहिए। रेस्तरां हो या संग्रहालय,पुस्तकों की दुकान हो या कार्यालय,कहीं अंग्रेजी का प्रवेश नहीं है। दरअसल अंग्रेजी का प्रवेश न होने के कारण ही यूरोपीय देशों की अपनी भाषाएं और उनका सांस्कृतिक चरित्र बचा हुआ है। मैं जब स्पेन के सालमान्का,पुर्तगाल के लिस्बन,इटली के रोम की अकादमी और विश्वविद्यालयों में गई तो मुझे हिन्दी से स्पेनिश,पोर्तगीज और इटेलियन भाषाओं के अनुवादक उपलब्ध करवाए गए। तब मेरा संवाद संभव हो सका। मैंने हिन्दी से यूरोपीय भाषाओं के अनुवादक लिए,न कि अंग्रेजी से,क्योंकि मैं इन भाषाओं में हिन्दी का प्रचार और दखल चाहती हूं,न कि अंग्रेजी का। इंग्लैंड,स्कॉटलैंड,आयरलैंड,दक्षिण अफ्रीका,अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के अलावा अन्य देशों में अंग्रेजी का प्रभुत्व नहीं के बराबर है।इसीलिए भारत का अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग इन्हीं देशों में अपनी पैठ बनाने के लिए लिए प्रयत्नशील रहता है,क्योंकि इन देशों में बसने के लिए भाषा और संस्कृति का संघर्ष नहीं है,और वह किसी अंग्रेजी भाषा को विश्व की सर्वश्रेष्ठ महान संपर्क भाषा मानते हैं,जबकि वह जापान हो या चीन,इंडोनेशिया हो या थाईलैंड,बर्मा हो या फिजी यूरोप हो या रूस,कैरिबियाई देश हों या दक्षिण अमेरिका के देश,ब्राजील,वेनेजुएला,फ्रेंच गयाना,अर्जेंटीना,चिली आदि इन सभी देशों की अपनी राष्ट्रभाषाएँ हैं। वे इन्हीं यानी अपने देश की राष्ट्रभाषाओं में ही जीते हैंl उसी में उनकी शिक्षा होती है,उसी में वे नौकरी करते हैं। वह भाषा घर से लेकर कार्यालय तक उनके साथ रहती है। उसी भाषा में नाचते-गाते और उत्सव मनाते हैं। उसी में वे अपने सपने देखते हैं। इन देशों में भाषा को लेकर कोई छल-कपट नहीं है,इसलिए यहां दोगले चरित्र के लोग कम देखने को मिलते हैं। यूरोप के किसी भी देश के नागरिक होने के लिए सर्वप्रथम उस देश की राष्ट्रीय स्तर की मानक भाषा आना अनिवार्य है। विदेश से आए विद्यार्थियों के लिए अलग तरह के पाठ्यक्रम होते हैं। विशेष तरह का प्रशिक्षण होता है और अलग से सरकारी परीक्षाएं होती हैं। इसके बाद उसका सामान्य शिक्षण संस्था में प्रवेश होता है।
इस देश की राष्ट्रभाषा,राजभाषा या यूं कहें देश-भाषा। डच या नीदरलैंड होने के बावजूद नीदरलैंड में अनेक भाषाएं और बोलियां हैं। सूरीनाम के भारतवंशियों की तरह ही इस देश में मोर्को,टर्की,इंडोनेशियन और नीग्रो जातियों की भी बहुलता है,क्योंकि एक समय में इन सभी देशों के नागरिकों की इस देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस देश के उत्कर्ष में इनकी पिछली पीढ़ियों के अथक परिश्रम का बड़ा योगदान हैl विभिन्न संस्कृतियों का अद्भुत तालमेल यहां देखने को मिलता है,पर डच भाषा का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वह हर नागरिक की अपनी भाषा बनी हुई है और उनके साथ जी रही है। डच भाषा यहां के नागरिकों को जीवन देती है और यहां के नागरिक डच भाषा को,दोनों एक दूसरे की शक्ति और जीवन बने हुए हैं।
नीदरलैंड सहित यूरोप के किसी भी देश की राष्ट्रभाषा को लेकर कोई दिवस नहीं है और न ही किसी विभाग में कोई पद या अधिकारी है। यहां तक कि,सरकारी विभागों में,संसद के कार्य दिवसों में किसी दूसरे देश के राजनयिक के आने पर यूरोप के सभी देश अपनी भाषा में उसका स्वागत करते हैं। नीदरलैंड आगमन पर आखिर ओबामा ने भी वहां की जनता को खुडोर्मोखेन कहकर भाषण की शुरुआत की और खत्म होने पर टॉटसीन्स(फिर मिलेंगे)कहा। डच भाषा ही यहां की मूल भाषा है और इस देश में अंग्रेजी सहित किसी भी अन्य यूरोपीय भाषा में नौकरी के अवसर नहीं हैं।
एशिया में भी भारत के अलावा शायद ही ऐसा कोई देश है,जहां अंग्रेजी भाषा का ऐसा वर्चस्व हो। यह चिंतित कर देने वाला आश्चर्य है कि अंग्रेजी का प्रभुत्व भारत देश में इस तरह क्यों काबिज है कि,राष्ट्रभाषा हिन्दी तक को मुंह की खानी पड़ रही है। दरअसल किसी भी देश की राष्ट्रभाषा के कमजोर होने पर वहां की भाषा और बोलियां भी शक्तिहीन होने लगती हैं,और शनै:-शनै: वह मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं। अंग्रेजी के दुष्प्रभाव के कारण ही भारत देश में हिन्दी भाषा अपने पांव पर खड़ी नहीं हो पा रही है। बोलियां भी संस्कृतिहीनता के कारण संकटग्रस्त हो रही हैं, लेकिन भारतवंशी देशों में बोलियों की स्थिति इतनी नाजुक नहीं है। यूरोप हो या भारतवंशी देश,यहां के भारतवंशियों ने अपने देश की भाषा में जैसी महारत हासिल की हुई है,वे वैसे ही अपने पुरखों की हिंदुस्तानी बोली को भी बचाए हुए हैंl
 यूरोप के किसी देश में,फ्रांस हो या जर्मनी,स्पेन हो या पुर्तगाल आदि ,इन देशों में भारतवंशी जब आपस में मिलेंगे तो हिंदुस्तानी में वैसे ही बातें करेंगे,जिस तरह फ्रेंच से फ्रेंच और जर्मन से जर्मन बिना किसी हीनता ग्रंथि के आपस में संवाद करते हैं। भारतवंशियों को हिन्दी भाषा परिवार की बोलियां उसी कोटि की हैं,जैसे फ्रेंच-जर्मन और डच भाषा परिवार की बोलियां हैं,लेकिन यूरोप सहित विश्व के किसी भी देश में यदि कोई १५-२० वर्ष से रह रहा भारतीय  किसी दूसरे भारतीय से मिलेगा तो वह अंग्रेजी में बातें करेगा। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि,यूरोप सहित अन्य देशों में भारतीयों के कारण ही अंग्रेजी बसर कर रही हैl यूरोप में विशेषकर नीदरलैंड में डच भाषा का ऐसा चलन है कि,किसी विदेशी को डच सिखाने तक के लिए वे अंग्रेजी भाषा का सहारा नहीं लेते हैं। इनकी डच भाषा सिखाने की पुस्तकों में डच भाषा ही माध्यम है। इनका मानना है कि,इससे डच भाषा सीखने में तेजी से प्रगति होती है।
यूरोप के कई देशों की कई बार की यात्राओं में हमें वहाँ के लोगों में अपने देश की राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम का जज्बा देखकर सुखद एहसास हुआ। इन देशों में सारे संकेत-सूचनाएं उस देश की अपनी भाषाओं में हैं। कई देशों में अपनी भाषाओं की आकर्षक बहुतेरी मासिक पत्रिकाएं और अख़बार हैं। नीदरलैंड देश में न तो कोई कोई अंग्रेजी अखबार प्रकाशित होता है और न ही कोई अंग्रेजी चैनल है। पुस्तकों की दुकानों पर भी पर्यटन को छोड़कर अंग्रेजी में कोई किताब नहीं मिलेगी। मेरा ऐसा ही अनुभव स्पेन,पुर्तगाल,जर्मन,लिक्सबर्ग,बेल्जियम,डेनमार्क,पोलैंड,नॉर्वे,ब्राज़ील,पेरू,चिले,सूरीनाम,फ्रेंच गयाना और अर्जेंटीना आदि देशों के साथ है। इसलिए इन देशों में यायावरी करने के लिए द्विभाषीय गाइड लेने पड़ते हैं। दुकानों तक के लोग अंग्रेजी सुनने पर दोनों हाथ उठा गर्दन हिलाकर नासमझी की नकार करने लगते हैं। नोबेल पुरस्कार के लिए यूरोपीय भाषाओं में ही साहित्य भेजा जाता है,उसे अंग्रेजी भाषा में अनुदित करने की बाध्यता नहीं होती है। अंग्रेजी भाषा से होने वाले नुकसान को यूरोप के भाषाविद ठीक से पहचानते हैं,इसलिए अपनी भाषा संस्कृति को बचाने के लिए अंग्रेजी और अंग्रेजी-संस्कृति से कोसों दूर रहते हैं।
भाषा हमारी पहचान है,भाषा है तो हम हैं। किसी देश में रहते हुए जब कोई व्यक्ति उस देश की भाषा में संवाद करता है तो वह बिना किसी को कुछ बताए उस देश का नागरिक लगने लगता है,क्योंकि भाषा ही व्यक्ति का व्यक्तित्व रचती है और अपने देश के देशज संस्कार देती है।
(साभार:वैश्विक हिन्दी सम्मलेन-डॉ.एम.एल.गुप्ता)

 

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।