प्रतिदिन जिस भाव को
जीती हूं ,सोचती हूं क्या हि
अच्छा होता जो यूंही इस
समय चक्र से कहीं दूर
उस समय चक्र को बांध कर
जी लिया होता ,
कितनी ही अबोली बातों को
यूंही उस कालबंध से इस काल
तक., ला न सकी होती
और तुम्हारा मेरी बातों को
शब्द रहित रहने देना यूं
न भाता.,मैं कहती कहां हूं
तुम ही पहले जान लेते हो ,
मैं उलझी न रह जाऊं इस
बात में इसीलिये तो आनंद की
दीक्षा दी है तुमने.,अब
सब सौंप तुम्हे मैं शिव से
मांग रही हूं स्वयं को
यूं भी तो विलग कहां हूं तुमसे
इस युग की तपस्या पूर्ण कर
उस युग कोई प्रश्न न ले जाऊंगी ,
उत्तर तुम संभालो.,वे भी तुम्हारे
मैं आनत् उन प्रश्नों की
मर्यादा निभाऊंगी ,
अब तुम हर क्षण में हो बीतते
बन जाते हर भाव विचार ,
मैं हर क्षण का कण कण बन
सूर्य रश्मि सी झिलमिळाऊंगी ,
कहते हो आओगे पुनः ,
कुछ प्रश्नों के उत्तर जो देने हैं ,
बता देना देहरी में आरात्रिका बनजाऊंगी,
किंवा अस्तांचल सूर्य .,संध्या
के आँगन तुलसी दीप ही तो बन जाता
है,
तुम्हारे आने के विचार में मैं शब्दबिम्ब बनाऊंगी,
बस एक ऐेसा दिन ले आना साथ
का अपने ,जिसमें शून्य मानदंडों को
पुनः स्पंदित कर ईश संचालित
योग सृष्टि की ज्वाला धधकाऊंगी ,
तुम कहते हो आनंदिता बनो
मैं त्याग स्वयं की पीढा
स्वयं का भान अनहद नाद जगाऊंगी ,
न यक्ष न सरोवर ,
न प्रश्न न उत्तर न होने का भाव ,
न खोने का भाव ,
कुछ है तो एक एक अषृु के पिरोने का भाव ,
पहन उन अष्रु युगों की प्रेमल कण्ठिका
मैं स्वयं समय सरिता कहाऊंगी ………क्मशः।।
परिचय-
गरिमा मिष्र ‘तोष’
इंदौर