
डरने लगी है कुमुदिनी , देखकर कमल को |
कुछ समझ में न आ रहा , बेखबर जल को ||
जल जाना चाहती है जल में जीते – जीते |
अनैतिक लहर के जहर को पीते- पीते ||
खिलने से पूर्व है प्राण त्यागना अच्छा |
प्रदूषित सरोवर में कहाँ है सुरक्षा ?
अधखिली कली को खतरा है औरों से |
खतरा है पुष्पों से और निज भौंरों से ||
घूर रहे हैं कमल दल , टकटकी लगाकर |
डूब मरना चाहती है डरकर , शरमाकर ||
दुखड़ा सुनाना चाहती है तारों को बुलाकर |
पर , राजनीति शुरू कर देंगे योजना बनाकर ||
न दोषी को मिलेगी सजा , न उसे मिलेगा न्याय |
ओह ! कैसे जीए, क्या करे , न सूझे कोई उपाय |
यहाँ न सुगन्ध का मोल है न सौन्दर्य का सम्मान |
स्वर्ग सा जीवन बना नरक के समान ||
मनचलों के बीच अब जीया नहीं जाता |
शिव सा जहर भी अब पीया नहीं जाता ||
डंसता रहा पंक , भौरें भी मारें डंक |
न बचाया पुष्कर , न भाष्कर – मयंक ||
सहते – सहते बहने लगा सिर के ऊपर पानी |
पानी – पानी हो गयी है प्यारी जिन्दगानी ||
अब करना है विरोध , न रहना है मौन |
‘सावन’ स्वयं के सिवा यहाँ सहारा है कौन ?
#सुनील चौरसिया ‘सावन’
कुशीनगर(उत्तर प्रदेश)