
गणपति आखिर विदा हो गए,
बरखा तुम कब जाओगी ।
अब तो हद-पार अति हो गई,
कब तक हमें सताओगी।
मानसून में रिमझिम-रिमझिम,
हमको प्यारी लगती हो ।
आषाढ़ी कृषक की, सावन में,
बहन हमारी लगती हो।
तुम्हें मनाने तुम्हें बुलाने ,
जाने कितने जतन किए ।
देर से ही तुम आई भले पर,
जलद घटाएं साथ लिए ।
धरती तुमने तृप्त ही कर दी,
भूजल लाई उबार के ।
जंगल , खेत सब हरित हुए हैं,
अब आए दिन बहार के।
ताल, तलैया ,नदी, बांध सब,
तुमने सब को पानी दिया।
धरती पर अमृत बरसा कर,
हरण सभी का दु:ख है किया।
सावन-भादो गुजर गए अब ,
कार्य तुम्हारा पूर्ण हुआ।
कोटा जल का, थल को भरकर,
आंचल अब संपूर्ण हुआ।
कमी पानी की पूरी हो गई,
अब पानी ना बरसाओ।
समय तुम्हारा पूरा हो गया,
अब अपने तुम घर जाओ।
चारों तरफ बस पानी-पानी,
जीना अब मुहाल हुआ।
मानव अब पानी से बेबस,
पानी-पानी हाल हुआ ।
गलियाँ जैसे दरिया बन गई,
खेत बने गए सागर ।
पुल से ऊपर पानी बहता ,
नदियां तट से ऊपर ।
घर-घर में कोहराम मचा है ,
जलप्रलय घमासान हुआ।
नदियों ने भी सीमा तोड़ी ,
रहना ना आसान हुआ ।
आशा है तुम बिनती हमारी ,
अब तो मान ही जाओगी ।
जाकर अपने घर को अब तुम,
अगले बरस फिर आओगी ।
#दुर्गेश कुमार
परिचय: दुर्गेश कुमार मेघवाल का निवास राजस्थान के बूंदी शहर में है।आपकी जन्मतिथि-१७ मई १९७७ तथा जन्म स्थान-बूंदी है। हिन्दी में स्नातकोत्तर तक शिक्षा ली है और कार्यक्षेत्र भी शिक्षा है। सामाजिक क्षेत्र में आप शिक्षक के रुप में जागरूकता फैलाते हैं। विधा-काव्य है और इसके ज़रिए सोशल मीडिया पर बने हुए हैं।आपके लेखन का उद्देश्य-नागरी की सेवा ,मन की सन्तुष्टि ,यश प्राप्ति और हो सके तो अर्थ प्राप्ति भी है।