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कविता सदा से ही मनुष्य के अंत:करण में उठे भावों को स्वर देने का एक सशक्त माध्यम रही है । समय के साथ कविता के विषय, शिल्प एवं भाषा में परिवर्तन होते रहे है। पुरातन विषय परिवर्तित होकर समसामयिक हो गये है पर अनेक विषय ऐसे है जो मनुष्य के मस्तिष्क और साहित्य जगत में अपनी गहरी पैठ जमा चुके है । आजकल इन विषयों पर अनेकों रचनाएं पढ़ने और सुनने को मिल जाती है, लेकिन उनके भाव और कथ्य केवल वर्तमान स्थिति के आसपास ही केन्द्रित होते है । ऐसे समय में सुकवयित्री डॉ. पुष्पा चौरसिया की सद्य: प्रकाशित कृति “सात रंग जिंदगी के” बहुत गहराई से जीवन के रंगों से परिचय करवाती नजर आती है ।
समय से शुरु करते हुए रचनाएँ बात, जिंदगी, मन, आँसू, बूँद और चक्कर के साथ पूर्ण होती है । सातों विषयों में अभिधा के स्वर होने से रोचकता भरपूर है व्यंजना के रूप में मुहावरों, कहावतों का बहुत ही सार्थक प्रयोग देखने को मिलता है, जो पाठक को बांधे रखते है । पुष्पा जी छंद प्रेमी है, और उनकी यह पुरी कृति मुक्त छंद और गेयता की कसौटी पर खरी उतरती है । समय के मूल्य पर रचना में वे कहती है –
संग जो मेरे चला है
मिल गई उसको सफलता,
जो न जाने मूल्य मेरा
रह गया होता कलपता ।
* * * *
हर कदम पर साथ हो तो
मैं तुम्हें सौगात दूँगा,
साथ मेरे ना चले तो
हर कदम पर मत दूंगा ।
दूसरी रचना है बात । बात पर बात लिखना या कहना जितना आसान लगता है, उतना ही कठिन है ,क्योंकि सारी दुनिया ही बतरस है, और बात ही है जो इंसान के जीवन के बाद भी रहती है, बातों में ही सारे मिथक, कथानक, कहावतें, मुहावरे, समाए हुए है । और बात की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बात की शुरूआत होती है बात का समापन नहीं होता है । कवयित्री लिखती है –
बातों की पगडण्डी लम्बी
इसकी सीमा कहीं नहीं है,
जो इस पथ पर चला सम्हल के,
असली राही बना वही है ।
* * * *
समय नहीं कटता बातों बिन
वियोवृद्ध अकुलाया करते,
बड़े नहीं तो बच्चों से ही
अपना मन बहलाया करते ।
तीसरी रचना है जिंदगी, एक ऐसा विषय है जिस पर हर रचनाकार ने कभी न कभी क़लम जरुर चलाई है । किसी ने अपनी जिंदगी पर तो किसी ने दूसरों की जिंदगी पर । जिंदगी की शुरुआत केवल विचारों से होती है और समापन अनुभवों से, और अनुभवों का पुलिंदा ही आने वाली पीढ़ी के लिए नये विचार दे कर जाता है । इस कृति में भी कुछ ऐसा ही पढ़ने को मिलता है लेकिन कुछ हटकर , अध्यात्म और दर्शन के साथ वर्तमान का सामंजस्य रचना को रोचक बना रहा है –
जिंदगानी जीत है तो
मौत चिर विश्राम भी है,
जन्म-जन्मों के सफर का
कोटि तीरथ धाम भी है ।
* * * *
सृष्टि के आँगन में पावन
जिंदगी तुलसी का चौरा,
वंदना के योग्य यह तो
क्यों बने आसक्त भौरा?
* * * *
एक झोंका है मलय का
जिंदगी भरपूर जी लो,
साँस कब कर दे बगावत
मधुकलश आकंठ पी लो ।
* * * *
मृत्तिका- सी है नरम यह
हर तरह के रूप गढ़ लो,
या अतल गहराई में जा
या प्रगति के शिखर चढ़ लो।
चौथी रचना है मन । जिंदगी के बाद बात पहूँचती है मन पर, मन जिसे स्थिर करने के ढेरों उपाय ग्रंथों में लिखे पड़े है लेकिन मन कि स्थिरता के लिए आज भी मनुष्य नये तरीके ढूंढता ही रहता है ।मन में गति है,वेग है,चंचलता है और सबसे अधिक है कल्पना, जिसका कोई पार नहीं पा सका है । कवयित्री लिखती है-
मन को कोई समझ न पाया
गूढ़ रहस्य की परत पड़ी है,
ऊँट कहॉ किस करवट बैठे?
उत्सुकता भी बहुत बड़ी है ।
* * * *
तन की सीमा सीमित रहती
मन की क्षमता सीमातीत,
वर्तमान के रथ पर चढ़कर
हाँके, भावी और अतीत ।
पांचवी कविता है आँसू । कविता का जन्म पीड़ा से होता है, दर्द कविता का स्थायी भाव जैसा है , आँसू अधिकांश स्थिती में दर्द का ही सूचक रहे है,अपवाद रूप में ही आँसू खुशी के होते है । जिंदगी बिना आँसू के अधुरी होती है ऐसा माना जाता है तो पुष्पा जी जब जिंदगी के सात रंग लिखे और आँसू पर न लिखे तो, लेखन अधूरा ही रहेगा । वे लिखती है –
नयनों की सीपी के भीतर
रत्नाकर बहुत समाते हैं,
आघात हृदय में लगने पर
अविरल आंसू बह जाते हैं।
* * * *
हर जीवन के कुछ पहलू जो
आंसू से भीगे रहते हैं ,
नियति का चक्र नियत रहता
सब आहें भर कर सहते हैं ।
छठी रचना है बूँद, यह सृष्टि के सृजन का सूचक है, बूँद प्रकृति का वह उपहार है जो हमेशा उल्लास ही देती है ,बूँद छोटी होती है पर समुद्र को समेटने की क्षमता रखती है । बूँद के विविध स्वरूप यहॉ एक साथ पढ़ने को मिलती है, अमृत,आँसू , पसीना, जल, मदिरा, खून और स्याही। बूँद के ये सारे ही स्वरूप मनुष्य के आसपास के होते है, इन सब का एक साथ उल्लेख होना रचनाकार का अद्भूत रचना कौशल प्रदर्शीत करता है । बूँदों की प्रशंसा में पुष्पा जी लिखती है –
बूँदों की सत्ता इसीलिये,
वह मिट -मिट कर बन जाती है,
जो गड़े नींव खुद को खो दे
वह हस्ती नाम कमाती है ।
* * * *
यह बूँद प्रवासी बन करके
यायावर -जीवन जीती है,
मन -नयनों में पल बढ़ करके
बस अनुभव का जल पीती है।
और इस कृति का अंतिम रंग है चक्कर । एक ऐसा विषय जिस पर कुछ लिखने से पहले सैकड़ों बार सोचना पड़ता है । चक्कर प्रतिक है संसार चक्र का । दुनियादारी चक्कर है, मनुष्य का जन्म और मृत्यू भी संसार का चक्कर है, भारतीय दर्शन की मूल अवधारणा का विषय है चक्कर, इस पर कवयित्री लिखती है –
चक्कर जो गिनवाने बैठी
तुम भी चक्कर खा जाओगे,
मकड़जाल चक्कर का फैला
कैसे पिण्ड छुड़ा पाओगे ?
सत्य भी है यह संसार समय चक्र में बंधा है जिंदगी समय के चक्र में उलझती सुलझती रहती है और विभिन्न रंगों से रंगती हुई मौत के चक्कर तक पहूँच जाती है ।
सात रंग जिंदगी के लम्बे समय में कठिन श्रम का परिणाम है । कृति में सातों विषयों पर मिलाकर 580 मुक्त छंद चतुष्पदियां है , जो आरम्भ से अंत तक पाठकों को जोड़े रखने में सफल है । डॉ. पुष्पा चौरसिया की यह कृति सुधि पाठकों के साथ साहित्य जगत के विद्वानों में भी अपना स्थान बनाएगी ऐसा विश्वास है ।
कृति – सात रंग जिन्दगी के
कवयित्री – डॉ. पुष्पा चौरसिया
प्रकाशक – भारतीय ज्ञान पीठ, उज्जैन
मूल्य – 200/- रुपये
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