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गीता पंडित जी का यह उपन्यास विश्व पुस्तक मेले में खरीदा था . कुछ कारणों के चलते पढ़ न सका था . शीर्षक बहुत कुछ कहता है इसलिए उत्सुकता जगाता है . शीर्षक से ही जाहिर होता है कि स्त्रीवादी पक्ष पर यह उपन्यास आधारित है . बोल्ड भी लगता है पर मैं समझता हूँ कि जब पति-पत्नी के शयन कक्ष की बात होगी तब ऐसे शब्द भी आयेंगे जो थोड़ा असहज लग सकते हैं सार्वजनिक मंच पर लेकिन इनसे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता .
उपन्यास में कई प्रश्न उठाये गए हैं . क्या विवाह का अर्थ एक औरत का हासिल हो जाना है ? क्या पत्नी के साथ जब चाहे सम्बन्ध बनाये जा सकते हैं ? क्या पत्नी बंधुआ सेक्स वर्कर है ? क्या विवाह बलात्कार के लिए होता है ? क्या सिर्फ पति का अधिकार होता है ?
समर्पण में लिखा है “यह उपन्यास हर उस पुरुष को समर्पित है जो स्त्री को इंसान समझता है और सहचर मानकर उसके जीवन में नए आयाम जोड़ने में सहायक होता है .”
यह कहानी है कविता की और जय की . उनके बच्चे हैं . पति जय एक शराबी है , अमीर है , और जब भी घर लौटता है तो कविता में उसे देह नजर आती है . जबरदस्ती करना उसका विवाह्सिद्ध अधिकार जो है . बच्ची रोती है तो रोती रहे . माँ कविता बच्ची के मुँह से स्तन निकालकर दरवाजा खोलती है और वह ….आकर धकियाता है …पीटता है और मनमानी कर खर्राटे मारते हुए सो जाता है शराब की बदबू उड़ाते हुए . मगर नारी को समाज में सीता, द्रौपदी या सावित्री बनकर ही रहना है . रावण का प्रतिकार भला पुरुष समाज कैसे बर्दाश्त कर सकता है?.
ऐसी जिंदगी से चाहे औरत को उबकाई ही क्यों न आने लगे मगर मर्यादा और खानदान की इज्जत के नाम पर वह कुछ कह नहीं सकती अपने माँ-बाप से भी . बस विवाह न हुआ रोज जिबह होने का अनुबंध हो गया जैसे . फिर चाहे स्त्री-पुरुष के उस सम्बन्ध में एक -दूसरे के लिए सम्मान, प्रेम और विश्वास हो या न हो …उसे चादर बनना ही है …बिछना ही है.
क्या स्त्री को एक मकान, महँगी चीजें और ऐश-आराम ही चाहिए ? अगर कविता की तरह कोई पत्नी सवाल करे …”हर रोज़ आपको पत्नी नहीं एक वेश्या चाहिए बिस्तर पर जिसकी इच्छा अनिच्छा के के तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं .”
तब आप और हम उसे विद्रोही मान लेंगे . लेकिन यह शाश्वत सवाल हमारे घरों में मौजूद हैं . औरत का सेक्स समस्या पर बात करना भी पाप है . पता नहीं कौन-से ग्रन्थ में लिखा है या हम कोई झूठी पुरुषवादी मानिसकता ढोए चले जा रहे हैं . दैहिक संबंधों का मन को छूना जरुरी है , तभी तो प्रेम कहा जा सकता है . औरत के अन्दर खिलखिलाते नवजात शिशु की हत्या कोई कैसे कर देता है …और औरत खुलकर रो भी नहीं सकती . मुखौटा चस्पा किये रहो ख़ुशी का .
प्रेम सुन्दर, असुंदर नहीं देखता . वह मन से होता है और जीने के लिए प्रेम अनिवार्य है . विवाह को जब प्रेम की अनिवार्य शर्त माना जाता है तब क्या प्रेम बचता भी है जीवन में . शायद नहीं . तब औरत को बस एक बेखबर नींद की गोली मान लिया जाता है , जिसे सटकने के बाद पति घोड़े बेचकर सो जाता है .जीवन में एक बात और भी है कि हम उतनी तेजी से नहीं भाग पाते जितनी तेजी से उम्र भागती है . हम वहीँ खड़े रह जाते हैं .
इस उपन्यास में एक महिला पात्र और है रुक्मों का . जो इस यौनिक अत्याचार से पागल हो जाती है . सीधे हाल तो कोई औरत बोल नहीं सकती मगर पागलपन में मुखरित होती है उसकी पीड़ा …
“स्स्साला
कमीन कहीं का ….रोज मारता है मुझे ….गाली देता है …
आ जरा ….टांग तोड़कर हाथ में न दी तो मेरा नाम भी रुक्मों नहीं .”
ये क्रोध क्यों उपज रहा है ? क्यों घर में कोई दूसरी औरत सेंध लगा रही है . क्यों कोठा मंजिल बन रहा है ? क्यों बारबाला दोस्त नजर आती है ? क्या पुरुष का प्रेम दिखावा है ? स्त्री सब कुछ बाँट सकती है मगर अपने सिन्दूर पर एकाधिकार चाहती है तो क्या बुरा करती है ? क्या कई घरों में झगड़ों और अवसाद का यही कारण नहीं है ? जहाँ नहीं है ऐसा तो इस कारण कि सदियों से सिसकती स्त्री के होंठ चुप हैं .. संस्कारी होना पाप नहीं है पर संस्कार जब रूढ़ियाँ बन जायें तो उन्हें तोड़ देना चाहिए.
एक प्रसंग और सवाल उठाता है कि क्या औरत बच्चे जनने की मशीन है ? क्या बिना लडके पाँच या छह बच्चे पैदा करना औरत की मजबूरी है . नहीं औरत मशीन नहीं है . अगर कोई औरत अबोर्शन करवाती है तो उसके जैसी पीड़ा से मर्द नहीं गुजरता . खुद को काट देने की पीड़ा सिर्फ औरत ही सहती है .
स्त्री की एक कमी है या खूबी है कि वह जिसे प्रेम करती है ताउम्र भूल नहीं पाती है. जय का केंसर पता होने पर , जिसे वह भूल चुकी थी …मन बेचैन हो उठता है कविता का .
पति की मृत्यु पर वह सफ़ेद साडी नहीं पहनती . क्या पति के बाद जीवन का केनवास किसी काम का नहीं रहता ? एक औरत पति से अलग होकर भी बच्चे पाल लेती है मगर पति ऐसा कम ही कर पाता है. कविता का जीवन संघर्ष इस उपन्यास में दिखाया गया है .
न जाने कितनी ही कविताओं के प्रश्न हैं इस उपन्यास में . उपन्यास थोड़ा हटकर है . मगर जो प्रश्न उठाये हैं पुरुष समाज उन्हें आज भी परंपरागत रूढ़ियों के कारण हेय समझता है. मगर हम ऐसा कब तक कर सकते हैं ?
गीता पंडित जी की इस बेबाक पहल का मैं समर्थन और स्वागत करता हूँ . मैं समझता हूँ कि विषयवस्तु को और विस्तार दिया जा सकता था . कहानी में कुछ पात्र और आ सकते थे और कुछ छूटे हुए सवाल और नए रास्ते तलाशे जा सकते थे .
आशा ही नहीं बल्कि विश्वास है कि गीता जी इन सवालों पर एक और नई सोच के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवाएंगी . मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हैं उन्हें और एक साथी रचनाकार के तौर पर आशा करता हूँ कि यह किताब एक नया इन्कलाब पैदा करेगी और समाज की सोच में बदलाव लाएगी, रूढ़ियाँ तोड़ी जायेगी और सही में प्रेम होगा…सही में प्रेम होगा …एक -दूसरे के लिए जीते हुए . एक अच्छे परिवार और जीवन की आपने जो कामना की है वह फलवती हो .
#शब्द मसीहा
प्रकाशक : शलभ प्रकाशन (दिल्ली)
पृष्ठ : 192
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