वो मेट्रो वाली लड़की

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salil saroj

वो मेट्रो वाली लड़की
मुझे रोज़ सुबह मिलती है
मैं किसी पतंगे सा बदहवास
वो किसी फूल सा खिलती है
मैं धक्के-मुक्की से ही परेशान
वो किसी रोशनी सी बिखरती है
दरवाज़े के एक कोने पे खड़ा
मैं बस उसे ही देखे जाता हूँ
आज या कल कभी तो बात होगी
मन ही मन में सोचे जाता हूँ
उसके हाथों में सिमटी हुई किताब
कोमल उँगलियों में लिपटी हिज़ाब
वो लटों को बार बार सुलझाती है
मेरे सोए अरमानों में आग लगाती है
वो वहाँ न जाने किस बात पे मुस्कुराती है
और यहाँ मेरी तबियत खुश हो जाती है
वो फोन पे बातें किए जाती है
हुश्न की दावतें दिए जाती है
उसकी लाली,सुर्खी,आँखों का काजल
बिंदी,मेहंदी कर दे किसी को पागल
उझको देखते-देखते मैं अपने स्टेशन से आगे ही चला जाता हूँ
वो जहाँ उतरती है मैं भी वहीं उतर जाता हूँ
वो मुझे देखती भी है कुछ पता नहीं
मेरे बारे में क्या सोचती है कुछ पता नहीं
पर हाँ, उसक छूटा किताब तो कभी रुमाल
उसे रोज़ उसी सीट पर मिल जाता है
और चहक के जब मुझे देखती है
तो मेरा दिल खिल जाता है
#सलिल सरोज

परिचय

नई दिल्ली
शिक्षा: आरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया, कोडरमा,झारखंड से। जी.डी. कॉलेज,बेगूसराय, बिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.ए(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए(2011),  जीजस एन्ड मेरीकॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.ए(2015)।

प्रयास: Remember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादन, स्थानीय पत्रिका”कोशिश” का संपादन एवं प्रकाशन, “मित्र-मधुर”पत्रिका में कविताओं का चुनाव।सम्प्रति: सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश।

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