मेरी कविता

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vijay sinh
 कौन हैं जो राज अपने उन तलक पहुँचा रहे ।
 खा रहे हैं देश की गाने विदेशी गा रहे ॥१॥
दुश्मनों को दे रहे हैं भेद सारा देश का ।
देश के गद्दार सारे, देश बेचे जा रहे ॥२॥
चन्द पैसों के लिये जो गिर गये ईमान से ।
लाज पुरखों की लुटा नज़रें झुकाये जा रहे ॥३॥
जिनकी’ फितरत में कमीनापन व मक्कारी भरी ।
शर्म की चादर उतारे वो दलाली खा रहे ॥४॥
काट डालो ये सभी नासूर हैं बेकार हैं ।
देश को ये अंदरूनी चोट हैं पँहुचा रहे ॥५॥
जो धरा पर स्वर्ग था वो आज क्यों रणभूमि है ।
खूबसूरत वादियों में गोलियाँ बरसा रहे ॥६॥
कोढ़ जैसे ये सड़न करते हैं पैदा “बेरुका” ।
काट दो जड़ से इन्हें अब, ये जहर फैला रहे ॥७॥
#विजय नारायण सिंह “बेरुका”
जमशेदपुर(झारखण्ड)

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