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‘बरेली की बर्फी’ को देखा तो याद आया आगरे का पेठा,
राजिस्थानी घेवर और मथुरा के पेड़े पर दिल एंठा।
गुजरात की सोन पपड़ी और बंगाल के रसगुल्ले,
कौन होगा जो जवानी के ये रसभरे किस्से भूले।
मारवाड़ी काजू कतली और रसीली रबड़ी,
जो कालेज के दिनों में करती थी खूब गड़बड़ी।
वो मोतीचूर के लड्डू और मालपुए का स्वाद,
रसमलाई देख छिड़ जाता हम दोस्तों में विवाद।
किसी की माशूका दिलजानी, किसी की थी फिरनी,
चाल से सब लगती थी एक जैसी ,जैसे हो हिरनी।
वो हलवे की लज्जत और लाला जी का कलाकंद,
कालेज के दिनों में बिना मधुमेह ला देता था आनंद।
महाराष्ट्र के मोदक और सराफे की रसीली दूध जलेबी,
के आगे लगती थी जवानी में कम्बख्त दुनिया फरेबी।
कैसे भुलाऊं उन खयाली गुलाब जामुन की रसीली लज्जत,
जो बिन गुलाब और जामुन बढ़ा देते थे महफिल की इज्जत।
सबकी अपनी-अपनी कहानी और अपने -अपने किस्से हैं,
वो जवानी ही क्या जवानी,नहीं जिसके ये सब हिस्से हैं।
शुक्रिया ‘बरेली की बर्फी!’ फ्लैश बैक में ले जाने का,
अब तो मीठी यादों में ही मजा शेष बचा है मीठा खाने का॥
(आज प्रदर्शित फिल्म ‘बरेली की बर्फी’ पर आधारित)
#डॉ. देवेन्द्र जोशी
परिचय : डाॅ.देवेन्द्र जोशी गत 38 वर्षों से हिन्दी पत्रकार के साथ ही कविता, लेख,व्यंग्य और रिपोर्ताज आदि लिखने में सक्रिय हैं। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है। लोकप्रिय हिन्दी लेखन इनका प्रिय शौक है। आप उज्जैन(मध्यप्रदेश ) में रहते हैं।
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