● डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
भारतीय सांस्कृतिक चेतना के उन्नयन और नव जागरण में बंगाल की धरती का योगदान अभूतपूर्व रहा। प्रारब्ध से ही संस्कृति, साहित्य, कला के केन्द्र में बंगाल की समिधाओं का अपना हिस्सा रहा है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, शरतचंद, निराला जैसे महनीय लोगों की धरा बंगाल रत्नगर्भा ही मानी जाती रही। इसी धरती पर एक परम्परा का भी जन्म जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ, जिसे दुनिया ने बाद में ‘गुरुदेव’ के नाम से पहचाना।
7 मई 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर और माता शारदा देवी के घर रबिन्द्रनाथ का जन्म हुआ। उनकी आरम्भिक शिक्षा प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई।
बचपन में ही माँ के देहांत के बाद पिता ने उनका पालन-पोषण किया। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पिता ध्रुपद गायक रहे। संगीत, नाटक, साहित्य की शिक्षा उन्हें घर में अधिक मिली।
महज़ 8 वर्ष की उम्र में पहली कविता और सन् 1877 में केवल सोलह वर्ष की उम्र में उनकी प्रथम लघुकथा प्रकाशित हुई। ऐसे साहित्यधर्मी टैगोर ने अपने जीवनकाल में कई उपन्यास, निबंध, लघु कथाएँ, यात्रावृतांत, नाटक और हज़ारों गीत भी लिखे हैं। उनकी छोटी कहानियाँ बहुत लोकप्रिय रही हैं। टैगोर ने इतिहास, भाषाविज्ञान और आध्यात्मिकता से जुड़ी कई पुस्तकें भी लिखीं।
वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार से सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं, जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं – भारत का राष्ट्र-गान- ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान- ‘आमार सोनार बांङ्ला’ गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।
गुरुदेव को 1913 में उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। और 1915 में उन्हें राजा जॉर्ज पंचम ने नाइटहुड की पदवी से सम्मानित किया था। किन्तु जलियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोध में 1919 में उन्होंने यह उपाधि लौटा दी थी।
सुप्रसिद्ध कहानीकार शरतचंद ने गुरुदेव को ऐसा महाप्राण कहा था, जिसने देश का मुख उज्ज्वल किया है।
गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं।
भारतीय आज़ादी की लड़ाई में टैगोर और महात्मा गाँधी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहाँ गाँधी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्त्व देते थे। लेकिन दोनों एक-दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गाँधी जी को डाकू का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्ति निकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस समय गाँधी जी ने टैगोर को 60 हज़ार रुपये के अनुदान का चेक दिया था।
जीवन के अन्तिम समय 7 अगस्त 1941 से कुछ समय पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्ति निकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ, पुराना आलोक चला जाएगा और नए का आगमन होगा।
यहीं से उनकी कविता पढ़ने से उपनिषद् की भावनाएं अनंत में विलीन हो गईं।
समाज, देश और संस्कृति के पारंपरिक केन्द्रों में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा के रूप में गुरुदेव सदैव याद किए जाते हैं।
गुरुदेव न केवल साहित्य, संस्कृति के लिए बल्कि मानवता के पुनर्जागरण के लिए भी आज तक याद किए जाते हैं।
#डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
लेखक एवं स्तम्भकार