झरझराता सावन
भिगोती वो फुहारें
तीज हरियायी
सावनाई इठलाई
सलोनी नीम पुरवाई
घेवर- सिवइयाँ
रेशमी राखियों की रेशमाई
झरझराती पीली निंबोलियाँ
बहुत कुछ समेट लाईं
मेघों पर सवार
मन बावरा उड़ चला
उड़ चला
सुदूर दूर
जहाँ था नन्हा बचपन
माँ का आँचल
और
माँ के आँगन में खेलती नन्ही
वो झालर वाली नीली फ्रॉक
जो माँ ने ही सिली
वो सुख स्वर्ग–सा
जहाँ सोने से दिन
और चांदी–सी रातें
वो आम का बगीचा
औ तोतों का बसेरा
वो निशब्द बावड़ी
घुमावदार सीढ़ियाँ
रसीले जामुनों के लिए
कभी जिसमें उतरे
अतीत को समेटे
भूतों की कहानियाँ बने
वो नि:शब्द बावड़ी के अंधेरे कमरे
पास में बुलाते वो पेड़ बेरी के
मेघों पर सवार
इस राह
मन पहुंच पहुँच गया
प्यारे ‘कृष्ण कुंज’
छू गया
ठंडी हवा का एक झोंका
और द्वार खुल गया
स्वागत में बिछ गए
कोमल श्वेत पुष्प
कुछ उदास
कृष्णप्रिया तुलसी
और ‘कृष्णकुंज’ में
‘कृष्ण- प्रिया’ अकेली
चार बच्चों की माँ अकेली
चार कमरों के बड़े मकान में
रहती अकेली
सरसराई फिर हवा
द्वार सरक गया
सूती कलफ़दार साड़ी में लिपटी
बैठी माँ मुस्कराई
हाथ में
सिलाई और ऊन गुलाबी
दौड़ कर मैं गले लिपट गई
प्रेम कस चला
ऐसा बांध टूटा
सावन बह चला
अवरुद्ध हुआ कंठ
माँ! माँ!
स्वर कहीं घुट–सा गया
फिर चुप्प -सन्नाटा पसर गया
ऊन-सिलाई निश्चल एकाकी
खिन्न पड़ी थी
बावला मन
हाथ में संसार थामे
भ्रमित उंगलियाँ
925xxxxxxx पर झट नाच गईं
“द नंबर यू आर डायलिंग
इज़ … एरिया।”
पीड़ा ! टीस !
माँ ‘आउट ऑफ़ कवरेज’ हो गईं
जीवन का कटु यथार्थ
सावन फिर बह चला
नि:शब्द !
नि:शब्द !
मेघों को दूत बना
क्या भेजूं मैं संदेशा
माँ ! माँ!
तभी दूर नभ में
दामिनी दमकी
और
फिर खो गई।
#यशोधरा भटनागर
देवास, मध्यप्रदेश