तसव्वुर

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ज़िंदगी को गुलशन की तरह सजाना पड़ता है ।
गिरदाब से क़श्ती को फ़िर बचाना पड़ता है ।।

सक़ाफ़त यही है कि ख़ुलूस से जीयें हम ।
रिश्तों को अदब से फ़िर निभाना पड़ता है ।।

ज़िद पर अड़ जाये अगर कोई दुश्मन ।
रौब शख़्सियत का फिर दिखाना पड़ता है ।।

सफ़र में मिल जाये अगर कोई भूख़ा ।
अपने हिस्से का उसको फिर खिलाना पड़ता है ।।

भूल जाते हैं अक़्सर वो अपनी हदों को ।
ग़ुस्ताख़ी का सबक़ उनको फिर सिखाना पड़ता है ।।

दिल में अल्फ़ाज़ बहुत हैं मोहब्बत के ।
लबों पर लाकर उन्हें फिर बताना पड़ता है ।।

ग़ुज़र जाती है हर शाम तन्हाई में “काज़ी” ।
करके तसव्वुर उनका दिल को फिर बहलाना पड़ता है ।।

डॉ. वासिफ़ काज़ी
इंदौर

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कह दीजिये

Sun Jul 4 , 2021
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