आत्म कल्याण की राह क्षमापना

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जैन धर्म मे पर्युषण महापर्व को सभी पर्वों का राजा यानि पर्वाधिराज कहा जाता है। लौकिक जगत के जितने पर्व आते है, उनका मुख्य उद्देश्य भौतिक समृध्दि के लिए साधना करना होता है। लेकिन पर्युषण पर्व के दौरान लौकिक और भौतिक समृध्दि के लिए कोई साधना नहीं की जाती वरन आत्मकल्याण के लिए साधना की जाती है और आठ दिन की पर्वाराधना के सार तत्व के रुप में जगत के समस्त जीवों से क्षमापना की जाती है।

प्रश्न यह उठता है क्षमापना क्यों? मनीषियों ने कहा है कि मनुष्य की उन्नति और पतन का कारण मनुष्य स्वयं होता है। मनुष्य के अपने विचार ही उसे उन्नति की ओर ले जाते है और विचार ही पतन की मार्ग निर्मित करते है। यदि विचारों पर काबू किया जाए तो पतन का मार्ग रुक सकता है। हमेशा से मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी रही है दुसरों के प्रति द्वेश की भावना। जड़ वस्तु (धन-दौलत) के प्रति राग मनुष्य की कमजोरी नहीं है। जड़ के प्रति जो राग होता है उसे छोड़ना आसान होता है। पर दुसरे के प्रति द्वेश का त्याग करना आसान नहीं होता है। आज मनुष्य करोड़ों का दान देने को तैयार है। मगर किसी भी व्यक्ति के प्रति अंतर में द्वेश का भाव है, जो दुर्भावना मन में है, या जो आक्रोश हृदय में है उसे आसानी से नहीं छोड़ता है। द्वेश भावना एक आत्म शल्य है।

शास्त्रों में कहा गया है कि जिस व्यक्ति के हृदय में शल्य होता है। वह हृदय कभी परमात्म तत्व को प्राप्त नहीं कर सकता है। परमात्म तत्व सदैव निर्मल हृदय में ही वास करता है। शल्य का अर्थ है कांटा । जिस तरह किसी व्यक्ति के पैर में कांटा लगा हो तो वह दौड़ नहीं सकता है उसी तरह किसी के प्रति अन्तर में द्वेश का भाव है तो कभी भी आत्म उन्नती का मार्ग नहीं खुल सकता है। क्षमा भाव ही वह तत्व है जो अंतर के शल्य को मिटा सकता है और आत्म उन्नती का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

जैन दर्शन में कहा गया है कि जीवन में यदि जड़ पदार्थों का त्याग न भी करे तो मोक्ष का मार्ग खुल सकता है। मगर मन में किसी के प्रति द्वेश का भाव है तो मनुष्य की मुक्ति संभव नहीं है। किसी के प्रति द्वेश का भाव हमारे मन में आता है तो हमारी प्रसन्नता खो जाती है। मन विचलित हो जाता है। हम गड़बड़ा जाते है। उदासी छाने लगती है। जो चीज मन को उदास करे उसे मस्तिष्क में क्यों जगह दी जाए।

किसी ने कुछ कह दिया हो या कर दिया हो तो उसे बार-बार स्मरण करके मन की शांति भंग नहीं करना चाहिए। अपने मन के अनुकुल कार्य या व्यवहार न हो उस स्थिती में किसी के भी प्रति मन में आए नकारात्मक विचारों को तत्काल भूलने का प्रयास करना। यदि भूलने का प्रयास निश्फल हो रहा है, और क्रोध बढ़ भी रहा है तो कोई विपरित कार्य उस व्यक्ति के प्रति करने या उसे कुछ बोलने से पहले मन को शांत करने की पूरी कोशिश की जानी चाहिए। ताकि आवेश में कहीं कुछ ऐसा न हो जाए की जीवन भर वह कार्य हमें पछतावा लगे। दिल और दिमाग की हार्डडिस्क से हमेशा नफरत पैदा करने वाले विचारों को हटाने का प्रयास जारी रखना चाहिए।

पहली स्थिती में किसी के भी कार्य या व्यवहार का सबसे पहला असर मन पर होता है। जीवन में जब किसी के प्रति द्वेश का भाव उत्पन्न हो तो उसे वहीं रोक लेना जैसे आईने पर लगी धूल को पोछते ही आईना साफ हो जाता है। उसी तरह मन पर लगी विचारों की धूल को स्व प्रेरणा से पोछ कर उदारता का प्रयोग करना चाहिए। अबोला त्याग कर देना चाहिए।

यदि आत्ममुग्धता के वशीभूत स्व प्रेरणा से हम उदारता नहीं दिखा पाए और मतभेद हो भी गये हो तो किसी के कहने पर अपने मान-अपमान को त्यागकर क्षमायाचना कर लेना चाहिए। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि हम जिससे क्षमायाचना कर रहे है वह हमें क्षमा न भी करे। तो भी याचक भाव रखकर क्षमायाचना करना चाहिए। याद रखें जो क्षमा मांग रहा है वह अपना शल्य खत्म कर रहा है। उसके खाते से वैर भाव खत्म हो रहा है। जो मांगने पर भी क्षमा नहीं कर रहा उसके खाते में बैर भाव यथावत रहेगा। जो याचक है वह आत्मोत्थान की ओर बढ़ जाएगा।

क्षमा मांगना और देना दोनों स्थिती आत्म के कल्याण की कारक है इसीलिए जैन शास्त्रों में परस्पर क्षमापना शब्द का प्रयोग किया गया है। और इस दौरान परस्पर कहना चाहिए “मिच्छामी दुक्कड़म”। अर्थात- मैने जो भी आपके प्रति बुरा किया गया है वो फल रहित हो। यह शब्द क्षमायाचक और क्षमाप्रदाता दोनों के आत्मोत्थान का मार्ग प्रशस्त करता है। क्षमा मांगने वाला नीचा नहीं हो जाता और न ही क्षमा करने वाला ऊंचा। क्षमापना दोनों को समान राह पर ले आती है। दोनों के हृद्य के शल्य दूर हो कर दोनों के हृदय निर्मल हो जाते है।

संदीप सृजन
उज्जैन (म.प्र.)

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