आत्महत्या और श्रीमद्भगवद्गीता

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रिश्ता टूट गया तो आत्महत्या। कोई अपना रूठ गया तो आत्महत्या। फसल बर्बाद तो आत्महत्या। फिल्में नहीं मिलीं तो आत्महत्या। सम्मान नहीं मिला तो आत्महत्या।
ओह! कितना नादान और नासमझ है हमारा मन जिसे इतना भी नहीं पता कि जान है तो जहान है। कितना बच्चा है हमारा मन जिसे इतना भी नहीं पता कि ज़िन्दगी और समस्याएं एक ही सिक्का के दो पहलू हैं । हमारा मन बात बात पर रूठ जाता है फिर शीशे सा टूट जाता है। आखिर कहां गया हमारा धैर्य !?

वनवासी भगवान राम ने चौदह वर्षों में अनगिनत दुष्टों का संहार कर लोक कल्याण किया और आप पुरुषोत्तम कहलाए । अगणित कष्टों को सहकर भी आपने अपने मन को टूटने नहीं दिया। महाराणा प्रताप ने घास की रोटियां खाईं लेकिन मन को टूटने नहीं दिया । हम ऐसे- ऐसे तपस्वी एवं मनस्वी महापुरुषों के वंशज हैं तो फिर हमारी आंतरिक दुनिया सबल क्यों नहीं है ? क्या आत्महत्या ही सभी समस्याओं का हल है ? हमारे पूर्वज इतने बुद्धिमान, सहनशील, जुझारू और वीर रहे फिर हम सब ऐसे क्यों है ? हमारे मन में बात – बात पर आत्महत्या करने के विचार क्यों पनपने लगते हैं? आजकल इतनी आत्महत्याएं क्यों हो रही हैं ? हमारे मर जाने से किसी का क्या बिगड़ जाता है ? कुछ नहीं । और नहीं तो ऊपर से अपने और पराए लोग हमारी लाश के पास खड़े होकर हमें कोसते हैं। आत्महत्या से दुनिया का तो कुछ नहीं बिगड़ता है लेकिन हमारी अपनी दुनिया (परिवार) जिससे हम बेहद प्यार करते हैं बहुत दिनों के लिए बिखर सी जाती है। बाद में वह भी निखर जाती है, संवर जाती है । हमारे जैसे असंख्य जीव हैं इस धरा पर। हमारे मरने से जब किसी का कुछ बिगड़ने वाला है ही नहीं ,और नहीं तो अपना ही सर्वनाश है, तो फिर आत्महत्या क्यों ?

हां! जिंदगी से मोह क्यों? एक दिन तो मरना ही है। मरना हो तो मरो लेकिन कायरों की तरह नहीं वीरों की तरह। मरो मगर श्वानों की तरह नहीं शेरों की तरह। हमारे मरने से समाज का कुछ नहीं बिगड़ता है। असंख्य फूलों के बीच एक फूल बिखर ही जाता है तो भला फुलवारी का क्या बिगड़ जाता है ? हां ! उसके खिले रहने से फुलवारी की खुशबू में श्रीवृद्धि अवश्य होती है। एक तारा के टूट जाने से आसमान उजड़ नहीं जाता है। हां ! एक-एक तारों के चमचमाने से आसमान की खुबसूरती में चार चांद अवश्य लग जाता है।
हम खुद हैं तब हमारा खुदा है। हम हैं तब हमारी दुनिया है। इसलिए दुनिया में सबसे ज्यादा किसी से प्रेम करो तो वह है- हमारी अपनी प्यारी ज़िन्दगी।

  हमारे मन में आत्महत्या का विचार  तब आता है जब हम स्वयं को अकेला और बेसहारा महसूस करते हैं। अकेले में इन्सान या तो निखर जाता है या बिखर जाता है। अकेले में रहो तो खुद से जुड़ कर खुदा से जुड़ो, फिर देखो चमत्कार । आना अकेले फिर जाना अकेले, तो फिर जीवन की यात्रा में अपनों का मोह क्यों ? भव्यता और भौतिकता का मोह क्यों ? क्या लेकर आया था जो हाथ से निकल गया ? इतना अवसाद क्यों ? आखिर क्या खो गया कि मन भारी हो गया ?

आत्महत्या जैसी समस्या का बस एक ही समाधान है- श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान। दुनिया को ज्ञानी नहीं आत्मज्ञानी बनाओ । प्रत्येक कक्षा की प्रत्येक किताब में सांख्ययोग के महत्वपूर्ण श्लोकों को लगाओ और जीवनोपवन में गीता – कुसुम की खुशबू फैलाओ। सार्वजनिक स्थानों पर भी भावार्थ सहित गीतोपदेश की गंगा बहाओ। दुनिया को समझाओ कि दिन है तो रात भी है । सुख है तो दुख भी है। हंसना है तो रोना भी है। पाना है तो खोना भी है । सम्मान है तो अपमान भी है। ज़िन्दगी बहुरंगी है । यहां सभी रंगों का अपना-अपना महत्व है। सबको सहर्ष स्वीकारो। आत्महत्या के भावों को मारो।

सुनील चौरसिया ‘सावन’
कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)

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