मेरे जीवन में
जब तक माँ मेरे साथ थी
मैं कभी भी
उस तरह से उसे नहीं देख सका
जिस तरह से
मुझे जन्म देकर उसने देखा था
ना ही कभी
सुन सका मैं उसकी तरह
क्योंकि वह
हृदय से श्रवण करती थी
और मैं
श्रुतिपटों से सुनता था
अब रोज़
नौकरानी आती है करने वो काम
जिन कार्यों को
घर में माँ किया करती थी
मूढ़मति था मैं
माँ को घर की रानी समझता था
मेरे जीवन से
जा चुकी है माँ बहुत दूर
इतनी दूर
जहां से लौट कर कोई नहीं आता
फिर भी पुकारता हूँ
जैसे बचपन में पुकारा करता था
दीवार पर टंगी
तस्वीर में ही अब दिखती है माँ
बहुत रुलाती है
जब याद बनकर आती है माँ
ढूँढ़ता हूँ गोद वो
जिसमें सुकून से मैं सोया करता था
आलोक कौशिक
बेगूसराय (बिहार)