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मैं क्या मिरी आरज़ू क्या लाखों टूट गए यहाँ
तू क्या तिरी जुस्तजू क्या लाखों छूट गए यहाँ
चश्म-ए-हैराँ देख हाल पूँछ लेते हैं लोग मिरा
क़रीबी मालूम थे हमें हम-नशीं लूट गए यहाँ
फूलों की बस्ती में काँटों से तो न डरते थे हम
सालों से हो रखे थे इकट्ठे ग़ुबार फूट गए यहाँ
वक़्त के साथ बदल जाने दो ये मज़हबी रिश्ते
बे-ख़लिश हो जियो जाने कितने रूठ गए यहाँ
क़ाबिल-ए-इम्तिहाँ जान सब्र परखते हैं मिरा
सख़्त मिज़ाज है ‘राहत’ वर्ना लाखों टूट गए यहाँ
#डॉ रूपेश जैन ‘राहत’
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