सवेंदनाएँ शून्य हो गयी,कविताएँ मरने लगी है! रक्तिम स्याही वाली कलमें, निरंकुशता पर मौन धरने लगी है! कवि धर्म बिक गया सभा में,दरबारों की गाथा लिख-लिख! कविता की रोटी सिक रही नित,अधरों को भाग्य विधाता लिख-लिख! कविताएँ निस्तेज हो रही, सत्ता के घर में सो रही! कविताएँ अब हास्य हो […]